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( १०० ) दो या तीन सामायिक करनी हो तो उनके पूर्ण होने पर प्रत्येक में सामायिक लेने की विधि करना, लेकिन बीच में पारने की विधि करने की जरूरत नहीं है । अधिक सामा-यिक में तीन सामटी सामायिक पूरी करके पारना चाहिये ऐसी प्रवृत्ति है ।
६१. देवसिक प्रतिक्रमणविधि । प्रथम ऊपर लिखे प्रमाणे गुरुवन्दन फर सामायिक लेना । फिर एक खमासमण देकर, 'इच्छाकारेण. परच
खाण लेवा मुंहपत्ति पडिलेहुंजी ? इच्छं' कह कर मुहपत्ति की पडिलेह कर, दो वांदणा देना । फिर एक खमासमण देकर, 'इच्छाकारी भगवन् ! पसाय करी पच्चक्खाण कराओ जी ? इच्छं' बोल कर गुरु या वडिल से पच्चक्खाण लेना, इनका योग न हो तो खुद पञ्चक्खाणपाठ बोलना । फिर एक खमासमण देकर, इच्छाकारेण० चैत्यवन्दन करूं ? इच्छं' कह कर, चैत्यवन्दन बोलना । बाद 'जं किंचि०, नमुत्थुणं' कह कर खडे हो 'अरिहंत चेहआणं० अन्नत्थ०' बोल कर एक नवकार का काउसग्ग करके पार कर 'नमोहत्सिद्धा' कह कर प्रथम थुइ
१ जलपान किया हो तो केवल मुहपत्ति पडिलेहना और आहार किया हो तो मुहपत्ति पडिलेहन के बाद दो वांदणां देना, दूसरे वांदणा में 'आवस्सियाए ' पद नहीं कहना चाहिये ।
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