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(१४१) लेवे शुद्ध आहार । ऊंचे नीचे मध्यम कुले, धन धन ते अणगार ॥ ध० ॥४॥ मुनि मधुकर सम कह्या, नहीं तृष्णा नहीं लोभ । लाधे तो भला देहीने, अणलाभे मन थोभ ॥१०॥ ॥५॥ प्रथम अध्ययन द्रुमपुष्पिका, सखरा अर्थ विचार । पुण्यकलश शिष्य जेतसी, धर्मे जय जयकार ॥ ४०॥६॥ ८५. जिनमन्दिर की पांच आशातनाएँ ।
१ अवर्णाशातना-प्रभु के सामने या मन्दिर में पग पर पग चढा कर बैठना, प्रभु के तरफ पूंठ रख कर बैठना, पैर लम्बे कर या विपरीत आसन से बैठना. जिनवचन विरुद्ध भाषण करना और एक दूसरे के मर्मघाती वचन बोलना या दूसरों की निन्दा करना ।
२ अनादराशातना-मलमलिन घृणाजनक अशुचि वस्त्र पहिन कर मन्दिर में जाना, शून्य मन से प्रभु पूजा, दर्शन करना, बिना अदब का व्यवहार करना, खाली बकवाद या पापकर्म बन्धक बातें करना और प्रपंची मामले खडे करना ।
१ मांस मदिरादि परित्यक्त बहुसुखी श्रीमन्त महाजनादि कुलऊंचकुल । २ गरीब जो मांसादित्यक्त महाजनानि कुल-नीचकुल । ३ मांसादि परिभोग रहित महाजनादि अल्पसुखी श्रीमन्त कुछ-मध्यम कुल । अथवा जिन वर्णवाले कुलों के साथ ऊंचे वर्णवालों का खान पान व्यवहार चालु हो उन कुलों में गोचरी के लिये जाना और जिनकुलों में मांस मदिरा खाने पीने का व्यवहार हो उन कुलों में साधुओंको भिक्षा नहीं लेना चाहिये।
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