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(४७) माहरे जीवे जो कोई जीव-किसी जीव को मैंने हण्यो होय, हणाव्यो होय, हणता प्रत्ये अनुमोद्यो होय--मारा हो, मराया हो, और मारनेवाले की
प्रशंसा की हो तो ते सवि हुं मन वचन कायाए करी तस्स मिच्छा मि दुक्कडं--उस पाप का मैं मन, वचन, काया से मिच्छामि
दुक्कडं देता हूँ, उसको बुरा समझता हूँ।
३२. अष्टादश-पापस्थानकसूत्र ।
१ पहले प्राणातिपात--किसी भी जीव को मारना या
मारने की इच्छा और विचार करना. २ दूजे मृषावाद-झूठ बोलना, अमिय और अहितकर
भाषण करना. ३ तीजे अदत्तादान--किसीकी वस्तु को बिना पूछे ले
लेना, चोरी की आजिविका करना, कराना. ४ चौथे मैथुन--कामभोग करना और उसकी वांछा का
परिणाम रखना. ५ पांचमे परिग्रह-प्रमाण उपरान्त द्रव्यादि रखना या
उसके ऊपर मूर्छा रखना.
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