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( ६५ )
सासु संविभागो - यथार्थ साधुओं का आतिथ्य - सत्कार न किया हो,
न कओ तवचरणकरणजुत्तेसु तपस्वी, चरणसित्तरी और करण सित्तरी गुण युक्त मुनिराजों का सन्मान न किया हो,
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संते फासुअदाणे, विशुद्ध आहारादि मौजूद होने पर भी साधुओं को आहारादि दान नहीं दिया हो, तं निंदे तं च गरिहामि । —उससे लगे हुए अतिचारदोषों की मैं निन्दा और गर्दा करता हूँ || ३२ ॥ इह लोए परलोए - धर्म के प्रभाव से इस लोक में सुख की इच्छा १, परलोक में देवेन्द्रादि वैभव मिलने की वांछा २,
जीविअ मरणे अ आसंसपओगे-अनशनादि का प्रभाव देखकर जीने की इच्छा ३, अपमान से घबरा कर मरने की इच्छा ४, और कामभोग की तीव्र इच्छा करना ५,
पंचविहो अहआरो- ये संलेखना व्रत के पांच अतिचारदोष मा मज्झ हुज्ज मरणंते ।-मरण के
अन्तिम समय तक
मुझे मत लगो ॥ ३३ ॥ कारण काइअस्सा — काया से लगे हुए अतिचारदोष को काया के शुभ योग से
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