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(६४ ) चउत्थसिक्खावए निंदे ।-चौथे शिक्षाव्रत में ये पांच
अतिचार दोष लगे हों तो मैं उनकी निन्दा
करता हूँ ॥ ३० ॥ सुहिएसु अ दुहिएप्सु अ--संयमगुण और वस्त्रादि उपधि
संपन्न सुविहित मुनिवरों की, तथा व्याधिपीडित तपस्या से खिन्न और वस्त्र पात्रादि उपधि से रहित दुःखी सुविहित साधुओं की
लाभ बुद्धि से दयाभक्ति न की हो, जा मे असंजएसु अणुकंपा--और पार्थस्थादि असं
जती ( पतित ) साधु नामधारी असंयतियों
की जो मैंने अनुकम्पा (दया-भक्ति) की हो, रागेण व दोसेण व-अथवा वह भक्ति राग के वश हो
या द्वेष के वश हो कर की हो, तथा यह साधु नीच कुल का है कंगाल है निर्लज्ज है वार वार यहाँ आता है इसको कुछ देकर रवाने किया जाय इस घृणा की दृष्टि से
भक्ति की हो, तं निंदे तं च गरिहामि ।--उस अभाव और अनादर
दृष्टि से हुई भक्ति एवं अनुकंपा के दोषों की मैं आत्मसाक्षी से निन्दा और गुरुसाक्षी से गाँ करता हूँ ॥ ३१ ॥
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