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(४१) झाणं उसग्गो वि अ--आर्त रौद्र ध्यान का त्याग करके
धर्मध्यान और शुक्लध्यान में प्रवृत्त रहना ५, और कर्मक्षय के निमित्त कायोत्सर्ग करना
या मूर्छा का त्याग करना ६, अभितरओ तवो होइ।—ये छः प्रकार का आभ्यन्तर
तप होता है । इन तपों का आचरण करने वाला व्यक्ति साधारण की दृष्टि से नहीं,
शास्त्रदृष्टि से भी तपस्वी समझा जाता है ॥७॥ अणमूहिअ-बलवीरिओ-जो अपने बल-पराक्रम रूप
शक्ति को न छिपा कर प्रभुभाषित धर्म में उद्यम, पडिक्कमह जो जहुत्तमाउत्तो---और जो शास्त्रोक्त रीति
से धर्मक्रियाओं में सावधानी से प्रतिक्रमण
करता है, और जुजइ अ जहाथामं--यथाशक्ति प्रवृत्ति करता है, उस नायव्वो वीरियायारो।--आचरण को वीर्याचार जानना
चाहिये ॥ ८॥
२९. सुगुरुवंदणसुत्तं । इच्छामि खमासमणो ! बंदिउं--चाहता हूँ हे क्षमाश्रमण
पूज्य ! वन्दन करने के लिये जावणिज्जाए निसीहिआए--शक्ति के अनुसार शरीर
को पापक्रिया से हटा कर
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