Book Title: Chitramay Tattvagyan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 39
________________ | ७ जीव के ५६३ भेद जैन शासन में जीव-विज्ञान बहत महत्व रखता है । क्योंकि उसके होने पर हम कई पापों से बच सकते हैं व प्राणातिपात विरमण व्रत का पालन करने में सफल हो सकते हैं । अब हम आपको जैन जीव - विज्ञान यानी जैन बायोलॉजी समझा रहे हैं | जीव के दो भेद होते हैं (१) मुक्त --आठ कर्म से रहित बन कर । मोक्ष में गये हुए जीव, जैसे ऋषभदेव आदि (२) संसारी - कर्म के कारण अनेक गति, शरीरादि में संसरण करने वाले यानि भटकने वाले जीव, जैसे हम व पेड पौधे आदि । संसारी जीव के दो भेद होते हैं । (१) स्थावर (२) त्रस । (१) स्थावर :- तिष्ठतीत्येवंशील अर्थात् जो एक ही जगह पर स्थिर रहे, सर्दी, गर्मी आदि उपद्रव आने पर भी अपनी इच्छा से जो चल फिर न सके, उसे स्थावर कहते हैं । उसको एक ही स्पर्शेन्द्रिय यानि शरीर ही होता है । इसलिये एकेन्द्रिय व स्थावर कहलाते हैं। इसके मुख्य ५ भेद होते हैं। (i) पृथ्वीकाय :- यानी पृथ्वी रूपी शरीर को धारण करने वाले जीव , जैसे कि मिट्टी , कच्चा नमक, खान में से निकला हुआ पत्थर, खान में रहा हुआ लोह, सोना आदि धातु । पृथ्वीकाय आदि असंख्य जीवों के शरीर जब इकट्ठे होते हैं । तभी वे दृष्टि गोचर होते है। प्रवाल, पारा, रत्न स्फटिक, फिटकरी , अभ्रक आदि । अमरीका के न्यूजर्सीनगर में माइक्रो बायलोजी के अध्यक्ष वाक्समेन ने भी स्वीकार किया है कि चमचभर मिट्टी में असंख्य जीव होते हैं। अप्काय :- यानी जल रूपी शरीर को धारण करने वाले जीव, जैसे कि कुंआ , तालाब, नदी, बरसात, झरना आदि का पानी, बादल, ओस , बरफ, धुन्ध आदि । असंख्य अप्काय जीवों के शरीर इकट्ठे चित्रमय तत्वज्ञान २४ Jain Education International Jain Education International For Personal & Private Use Only For Personal & Private Use only www.sainelibrary.org www.jainelibrary.org

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