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१४ तप के कितने भेद होते हैं ।
अनादिकाल से आत्मा के ऊपर कर्म चिपके हुए है। उनका नाश तप से ही होता है। जैसे अशुद्ध सोने को अग्नि से तपाया जाता है, तब अशुद्ध तत्व जल कर भस्म हो जाते हैं । इसी प्रकार तप रूपी अग्नि से अशुद्ध आत्मा तपाया जाये, तो कर्म रूपी अशुद्ध तत्त्व नष्ट होकर शुद्ध आत्मा निखर कर देदीप्यमान प्रकट होती है । इसलिये कहा है किं "तपसा निर्जरा" तप से कर्म की निर्जरा होती है अर्थात् कर्म नष्ट होते हैं ।
तप के दो भेद होते हैं । (१) बाह्य तप व (२) अभ्यन्तर तप । (१) बाह्यतप :- बाहर से कष्ट रूप दिखे या जो बाहर के लोगों में प्रसिद्ध हो, उसके ६ भेद होते हैं ।
(१) अनशन : आहार का त्याग करना, जैसे कि उपवास, एकाशना, आयंबिल, चोविहार, तिविहार करना आदि, जैसे धन्ना अनागार। (२) ऊनोदरिका :- भोजन के समय दो चार ग्रास (कवा) कम खाने से यह तप होता है ।
(३) वृत्तिसंक्षेप :- भोजन आदि के उपयोग में आने वाले द्रव्यों का संकोच करने से यह तप होता है, जैसे कि इतने समय तक इतने क्षेत्र में इतनी से अधिक या अमुक वस्तु नहीं खाना ।
(४) रसत्याग : (१) दूध (२) दही (३) घी (४) तेल (५) गुड व शक्कर (६) मिठाई, इन विगईयों में से किसी एक या सब का
त्याग करना |
(५) कायक्लेश : इच्छा पूर्वक लोच, उग्रविहार व अग्नि आदि के . सर्गों को सहन करना, जैसे गजसुकुमाल मुनि ।
(६) संलीनता :- शरीर के अवयव और इन्द्रिय तथा मन की अशुभ प्रवृत्तियों को रोक कर उन्हें अंकुश में रखना । जैसे दृढ प्रहारी ।
चित्रमय तत्वज्ञान
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