Book Title: Chitramay Tattvagyan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 103
________________ विपाकविचय नाम का धर्मध्यान कहलाता है । जैसे झांझरियां ऋषि । (४) संस्थानविचय:- १४ राजलोक की आकृति, ऊर्ध्व, अधोलोक व मध्यलोक, देवलोक व नरक आदि का चिंतन करना संस्थानविचय नाम का धर्मध्यान कहलाता है । (२) शुक्लध्यान के ४ भेद (१) पृथक्त्व वितर्क सविचार :- अन्यान्य पदार्थ में १४ पूर्वज्ञान के अनुसार चिन्तन में संक्रमण जिस ध्यान से होता है, उसे पृथक्त्व वितर्क सविचार कहते हैं । (२) एकत्ववितर्क अविचार :- जिस ध्यान में एक पदार्थ या एक पर्याय से दूसरे पर्याय या पदार्थ पर संचरण नहीं होता व एक पर्याय या पदार्थ के ऊपर और एक योग से १४ पूर्वज्ञान के अनुसार चिंतन होता है, उसे एकत्ववितर्क अविचार ध्यान कहते हैं ।. (३) सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती :- मोक्ष जाने के पहले सूक्ष्म मन, वचन, काया की प्रवृत्तियाँ जिसमें होती है । १३ वें गुणस्थानक के अन्त में यह ध्यान होता है । (४) व्युपरत क्रिया अनिवृत्ति :- सूक्ष्म योग भी रुक जाने से चौदहवें गुणस्थानक में 'अ इ उ ऋ लृ इन पांच ह्रस्व स्वर को मध्यम गति से उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतने समय तक यह ध्यान रहता है. इसका नाम व्युपरत क्रिया अनिवृत्ति है । अशुभ ध्यान :- अशुभ ध्यान से पाप कर्म का बंध होता है । इसके दो भेद हैं । (१) आर्तध्यान (२) रौद्र ध्यान (१) आर्तध्यान के चार भेद : (१) इष्ट संयोग आर्तध्यान :- इष्ट संयोग यानी अमुक वस्तु मिले व चित्रमय तत्वज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only ७० www.jainelibrary.org

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