Book Title: Chitramay Tattvagyan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 98
________________ (२) (२) अभ्यंतर तप :- आंतरिक मलीन वृत्तियों को नष्ट करने के लिये किया जाये, वह अभ्यंतर तप कहलाता है । उसके ६ भेद होते हैं । (१) प्रायश्चित्त :- गलतियां करने के बाद चित्त को शुद्ध करने के लिये गुरु महाराज के पास अपनी गलतियों को प्रकट करना व उनके कहने के अनुसार तपश्चर्या वगैरह करना, वह प्रायश्चित्त तप कहलाता हैं। गुरु महाराज के पास प्रकट करने में कोई दम्भ या कपट यदी रक्खी जाये, तो प्रायश्चित शुद्ध नहीं होता है ।' विनय :- गुरुजन की बाह्य सेवा, आन्तरिक प्रीति (हार्दिक प्रीति) प्रशंसा आदि विनय तप कहलाता है | (३) वैयावच्च :- आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, बीमार, नये मनि आदि की सेवा करना, वैयावच्च तप कहलाता है। (४) स्वाध्याय :- इसके पांच प्रकार होते है । (१) वांचना : शास्त्र के सत्र व अर्थ का अध्ययन करना व करवाना । (२) पृच्छना : शंकास्पद स्थानों को पूछना । (३) परावर्तना : पुनरावृति करना। (४) अनुप्रेक्षा : सत्र व अर्थ पर चिंतन करना । (५) धर्मकथा । धार्मिक कहानियां कहना । (५) ध्यान :- एक वस्तु पर योग की एकाग्रता व योग का निरोध करना ध्यान कहलाता है। इसका विशेष वर्जन १५वें प्रकरण में किया जायेगा। (६) उत्सर्ग :- काया वगैरह का उत्सर्ग यानी त्याग । यह उत्सर्ग दो प्रकार का होता है । (१) द्रव्य उत्सर्ग व (२) भाव उत्सर्ग । (१) द्रव्य उत्सर्ग के ४ भेद होते है । 6) कायाकाउत्सर्ग :- शरीर की क्रिया का त्याग करना कार्योत्सर्ग केहलाता है | संपूर्ण काया यानी औदारिक, तैजस व कार्मण सभी शरीर के प्रवृति का त्याग चौदहवें गुणस्थानक पर होता हे । उस वक्त व्युपरत क्रिया अनुवृत्ति शुक्ल ध्यान होता है । औदारिक शरीर की बादर प्रवृत्ति का त्याग तेरहवें गुणस्थानक में होता है | उस वक्त सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती ध्यान होता है । शेष गुणस्थानकों में कुछ समय के लिये देहाध्यास छोडने से औदारिक काया की चित्रमय तत्वज्ञान ६७ Ladak MEmaina ol Personal Pilyale www.jainelibrary.org

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