Book Title: Chitramay Tattvagyan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 99
________________ सामान्य प्रवृत्ति का त्याग होता है । जैसे अनशन करना व नवकार मंत्र लोगस्स वगैरह गिनना कायोत्सर्ग तप कहलाता है। (ii) गण उत्सर्ग - गच्छ का त्याग कर जिनकल्प आदि का स्वीकार करना । (iii) उपधि उत्सर्ग - जिन कल्प स्वीकार करने पर सर्वज्ञ की आज्ञा के अनुसार उपधि यानी वस्त्र ,पात्र आदि का त्याग करना । (iv) अशुद्ध आहार जल उत्सर्ग :- दोषित आहार व पानी का त्याग करना । शुद्ध आहार मिलने पर दोषित आहार-पानी की पारिष्ठापना विधि अशुद्ध आहार जल उत्सर्ग कहलाता है । (२) भाव उत्सर्ग :- इसके ३ भेद होते हैं। . 46) कषाय उत्सर्ग :- क्रोध आदि कषाय का त्याग करना । (i) भव उत्सर्ग :- भव के कारण रूप मिथ्यात्व वगैरह बंधहेतुओ का -त्याग करना । (iii) कर्म उत्सर्ग :- ज्ञानवरण आदि कर्मो का त्याग करना । १ ले गुणस्थानक से १४ वें गुणस्थानक तक यह होता है। काया को स्थिर करके वाणी में मौन रखकर मन को शुभध्यान में जोडना यह सामान्य से कार्योत्सर्ग कहलाता है । ज्यादातर कार्योत्सर्ग खड़े खड़े किया जाता है । इस तप से भी कर्मो का नाश होता है। (१५) ध्यान के कितने भेद होते हैं । तप के १२ प्रकारों का वर्णन कर दिया है। उन सब में आन्तरिक तप रूप ध्यान का विशेष महत्व है। केवलज्ञान और मोक्ष का अनन्तर कारण ध्यान है। इसलिये पूज्य वीरविजयजी महाराज ने कहा है कि ''तस रक्षक जिन पलटायो, मोहराय जाओ भाग्यो । ध्यान केसरीया केवलवरिया, वसंत अनंत गुण गाय ||" ओक वस्तु पर मन स्थिर होना ध्यान कहलाता है । उसके दो भेद चित्रमय तत्वज्ञान | ६८ Jain Education Interational For Personal & Prvate Use only www.jainenbrary.org

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