Book Title: Chitramay Tattvagyan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 43
________________ कहलाते हैं । वे संपूर्ण विश्व में ठांस ठांस कर भरे हुए हैं । लोकाकाश में ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां सूक्ष्म अकेन्द्रिय जीव न हो । केवलज्ञानी के सिवाय उनको कोई देख नहीं सकता । वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे अग्नि लगने पर भी जलते नहीं हैं | बादर एकेन्द्रिय :- जिन जीवों के शरीर एक या अनेक इकट्ठे होने पर किसी भी इन्द्रिय से जाने जा सके, वे बादर कहलाते हैं । उनमें एक इन्द्रिय वाले जीव बादर एकेन्द्रिय कहलाते हैं । जैसे कि पानी, मिट्टी , अग्नि, वायु, गेहूं आदि के दाने । उसमें वायुकाय एकेन्द्रिय स्पर्श से ही जाने जाते हैं । अन्य दो इन्द्रिय से लगाकर पांच तक इन्द्रिय से जाने जाते हैं । ये संपूर्ण लोक में व्याप्त नहीं होते । लोक के विशेष भाग में उनका स्थान (क्षेत्र) नियत होता है | शस्त्रों से इनका छेदन भेदन भी होता है । अग्नि से दहन वगैरह होता है । एक दूसरे के साथ उनका टकराव भी होता है । द्वीन्द्रिय आदि सभी जीव बादर ही होते हैं । पर्याप्त :- जो जीव अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके मरते हैं, वे पर्याप्त जीव कहलाते हैं । जैसे कि पैड़, पौधे, पशु, देव , मनुष्य, नारक वगैरह । एकेन्द्रिय जीव के ४, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व असंज्ञी पंचेन्द्रिय के ५ और संज्ञी पंचेन्द्रिय को ६ पर्याप्तियां होती है। इनके नाम इस प्रकार है । (१) आहार (२) शरीर (३) इन्द्रिय (४) श्वासोच्छवास (५) भाषा (६) मन | पुद्गल परमाणुओं की सहायता से उत्पन्न हुई जीव की आहारादि के ग्रहण व परिणमन आदि की शक्ति पर्याप्ति कहलाती है। अपर्याप्त :- जो जीव अपने योग्य पर्याप्ति पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं, वे अपर्याप्त जीव कहलाते हैं । विशेष में जब तक जीव अपने योग्य पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते, तब तक वे भी अपर्याप्त कहलाते हैं । कोई भी अपर्याप्त जीव प्रथम तीन पर्याप्ति पूर्ण करके ही मरता है । पृथ्वीकाय आदि में से हरेक के सूक्ष्म , बादर पर्याप्त व अपर्याप्त ४ भेद होने से ५x ४ = २० भेद होते हैं व प्रत्येक वनस्पति सूक्ष्म नहीं होती, सिर्फ बादर ही होती है । उसके पर्याप्त व अपर्याप्त दो ही भेद होते हैं । इस प्रकार स्थावर के २० + २ = २२ भेद होते हैं । | चित्रमय तत्वज्ञान २६ । t or Personal & Private Use only Jan Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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