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है । यद्यपि देशना में वचन योग व विहार में काययोग होता है । परंतु मन का उपयोग नहीं होने पर भी उसकी शक्ति अवश्य होती है । अनुत्तर देवो के संशय को दर करके मनोवर्गणा के द्रव्य मन का प्रयोग भी होता है । अंतिम अन्तर्मुहूर्त में इन तीनों योगों का निरोध कर अयोगी बनते हैं । इसका कम से कम काल अन्तर्मुहूर्त और ज्यादा से ज्यादा देशोनपूर्वकरोड वर्ष है । इस गुणस्थानक को प्राप्त करते ही तीर्थंकर के लिये देव समवसरण रचते हैं, अष्ट महा प्रातिहार्य व कम से कम करोड देव सेवा के लिये उपस्थित रहते हैं । तीर्थंकर भगवान भव्यों को प्रतिबोध देकर तीर्थ की स्थापना करते हैं । देवों की भक्ति के कारण सोने के कमल पर पैर रखकर वे विचरते हैं। दूसरे सामान्य केवली
अपने आयुष्य तक पृथ्वीतल पर प्रतिबोध करते हुए विचरते हैं | (१४) चौदहवां गुणस्थानक :- इस गुणस्थानक का नाम अयोगी केवली
है । यहां पर ओक भी योग नहीं होता है । आत्मा मेरु पर्वत की तरह स्थिर हो जाती हैं, अंश मात्र भी चंचलता नहीं होती । इसका काल अ-इ-उ-ऋ-ल इन पांच हस्व स्वर बोलने के समय जितना है | उसके बाद अस्पृशद् गति से आत्मा मोक्ष में जाती है । वहां सादि अनन्तकाल तक रहती है । अन्तिम शरीर के २/३ भाग में आत्मा रहती हैं।
गुणस्थानको का चढ़ाव उतराव :-पहले से तीसरे, चौथे, पांचवे, छठे व सातवें गुणस्थानक पर आत्मा जा सकती है। दूसरे से पहले जा सकती है । एवं तीसरे से पहले आ सकती है। व चौथे से पहले, दूसरे, तीसरे, पांचवे, छट्टे व सातवें गुणस्थानक पर आत्मा जा सकती है। पांचवे से पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, छढे सातवें, गुणस्थानक पर आत्मा जा सकती है। छठे से पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, सातवें गुणस्थानक पर आत्मा जा सकती है।
सातवें से पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवे, छठे, आठवें चित्रमय तत्वज्ञान
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