Book Title: Chitramay Tattvagyan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 70
________________ किट्टी कहा जाता है । यहां पर कोई आत्मा मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशम करती है, जैसे कोई आदमी मिट्टी पर पानी डालकर धोके से कूट कूट कर मिट्टी को उपशान्त बना (दबा) लेता है अथवा जैसे अग्नि के ऊपर राख डाल कर उसके प्रभाव को उपशान्त = दबा देता है । इसके कारण वह ११ वें गुणस्थानक पर जाती है | इसका काल कम से कम समय और ज्यादा से ज्यादा अन्नर्मुहूर्त होता है । जो आत्मा मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय कर लेती है, वह १२ वें गुणस्थानक पर जाती है । (११) ग्यारहवां गुणस्थानक:-इस गुणस्थानक का दूसरा नाम उपशांत मोह वीतराग है । यहां पर आत्मा मोहनीय कर्म के उपशान्त बनने का कारण वीतरागभाव के स्वरूप का अनुभव करती है । इसका काल कम से कम १ समय व ज्यादा से ज्यादा अन्तर्मुहूर्त होता है । उसके बाद आत्मा अवश्य मोहनीय कर्म का उदय होने से १०.९,८ वें गणस्थान पर क्रमशः जाती है । यदि यहां पर मृत्यू हो जाती है, तो वह सीधे चौथे गुणस्थानक पर पहुंचती है । चित्र में ओक मुनि क्रमशः उतरते व दूसरे मरकर ४ थे गुणस्थानक पर जा रहे हैं। जैसे अग्नि पर से राख दूर होने पर अग्नि प्रकट होती है, इसी प्रकार संज्वलन कषाय या अप्रत्याख्यान कषाय प्रकट होते हैं। (१२) बारहवां गुणस्थानक :- इस गुणस्थानक का नाम क्षीणमोह वीतराग है । यहां पर लेशमात्र भी मोहनीय कर्म नहीं होता हैं। पहले सर्वथा उसका क्षय हो चूका है । इसलिये यहां से आत्मा नीचे नहीं गिरती । यहां पर अंतिम समय में दर्शनावरण, ज्ञानावरण व अन्तराय कर्म का क्षय हो जाता है | यहाँ पर सूर्य के उदय के पहले अरुणोदय के समान प्रातिभ ज्ञान होता है । इसलिये इससे आगे आत्मा केवलज्ञानी बनती है । इसका काल कम से कम अन्तर्मुहूर्त व ज्यादा से ज्यादा भी अन्तर्मुहूर्त है । (१३) तेरहवां गुणस्थानक :- इस गुणस्थानक का नाम संयोगी केवली है । यहां पर तीन योग होते हैं । इसलिये संयोगी केवली कहलाता चित्रमय तत्वज्ञान ४७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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