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की गांठ का भेदन हो जाता है । अर्थात् राग द्वेष के अति तीव्र परिणाम का ह्रास हो जाता है । इसे ग्रंथिभेद यानी गांठ का भेदन कहते हैं । इसलिये अब आगे उसकी सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की कूच चालू रहती हैं। अपूर्वकरण के बाद जीव अनिवृत्तिकरण प्राप्त करता है ।
३ अनिवृत्तिकरण :- अपूर्वकरण में शुभ अध्यवसायों से यद्यपि स्थितिघात आदि होते थे, फिर भी वहां विवक्षित एक समय में अनेक जीवों की अपेक्षा से उन अध्यवसायों में भिन्नता थी । किन्तु अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में भूतकाल में जितने जीव आये, वर्तमान में आ रहे हैं, और भविष्य में जितने आयेंगे, उन सब के अध्यवसायं समान ही होते हैं । किसी भी प्रकार का फर्क नहीं रहता । इस प्रकार इस करण के अंतिम समय तक जानना । किन्तु पूर्व पूर्व समय से उत्तरोत्तर समय में अध्यवसाय अनन्तगुण विशुद्ध होते हैं । इस करण की शाब्दिक व्युत्पत्ति ही ऐसी है किनिवृत्ति यानी अध्यवसायों की भिन्नता, जिस करण में न हो, उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं। अपूर्वकरण की तरह अनिवृत्तिकरण में भी स्थितिघात आदि होते हैं ।
अनिवृत्तिकरण में मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय अत्यन्त मन्द रसवाला होता रहता है । किन्तु सम्यग्दर्शन पाने पर तो मिथ्यात्व मोहनीय का उदय नहीं रहता । इसलिये उसकी सफाई का प्रारंभ इस करण में करता है । वह कब व कैसे करता है ? यह आपको अब समझा रहे हैं ।
अन्तरकरण - अनिवृत्तिकरण काल के संख्यातवें बहुत भागं व्यतीत होने पर एक स्थितिघात काल यानी अंतरकरण क्रियाकाल में अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय के बाद के अन्तर्मुहूर्त में रहे हुए मिथ्यात्व के कर्म प्रदेशों का सफाया कर लेता है यानी बीच में अन्तर्मुहूर्त जितनी स्थिति को रिक्त बना लेता है । वह उन प्रदेशों को प्रथम स्थिति यानी अन्तरकरण के नीचे की स्थिति
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