Book Title: Chitramay Tattvagyan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 88
________________ अपूर्वकरण यानी जिसमें ग्रन्थिभेद होता है । इसमें जीव के अपूर्व यानी जो कभी पहले प्राप्त नहीं हुए, ऐसे करण यानी अध्यवसाय होते हैं । इसलिये प्रतिसमय प्रति व्यक्ति के नये-नये ही अध्यवसाय होते हैं, यथाप्रवृत्तकरण की तरह अध्यवसाय का अनुकर्षण नहीं होता । इसलिए इसे अपूर्वकरण कहते हैं । अपूर्वकरण यह कुल्हाड़ी जैसा है, जैसे कुल्हाड़ी से लकड़े की गांठ का छेदन भेदन होता है । वैसे ही इस करण रूपी कुल्हाड़ी से मिथ्यात्व की गांठ (= तीव्र रागद्वेष) का छेदन होता हैं । चित्र में उपमा द्वारा लकड़े को काटता हुआ मनुष्य बताया गया है । इस अपूर्वकरण में पांच वस्तुएँ होती है । (१) अपूर्व स्थितिघात (२) अपूर्व रसघात (३) अपूर्वस्थितिबंध (४) अपूर्वगुणश्रेणी (५) अपूर्वगुणसंक्रम। (१) अपूर्वस्थितिघात :- यथाप्रवृत्तकरण में कर्मों की स्थिति अन्तःकोटाकोटी सागरोपम थी । उसमें से स्थिति के ऊपर के भाग में से प्रति समय अपवर्तनाकरण से प्रदेशों को हटा कर जीव नीचे की कम स्थिति वाले कर्म स्कधों के साथ मिलाता है । इस तरह अन्तर्महर्त होने पर उत्कृष्ट से संख्यात सागरोपम कम से। कम पल्योपम के संख्यातवां भाग जितनी स्थिति कम हो जाती है। इसे स्थितिघात कहते हैं । चित्र में बायी ओर देखिये पहले आइसकेन्डी की तरह दो स्थितिसत्ता बताई है । दूसरी पल्योपम का संख्यातवां भाग कम बताई है । उसके बाद पहले बडी स्थिति बताई हैं । उसके पास में स्थितिघात बताकर छोटी स्थिति बताई है । इस प्रकार अपूर्वकरण में संख्यात स्थितिघात होते हैं । यद्यपि अपूर्वकरण भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है, मगर एक स्थितिघात का अन्तर्मुहूर्त अपूर्वकरण के अन्तर्मुहूर्त से संख्यातवें भाग का होता है । जीव ने कभी ऐसे स्थितिघात किये नहीं हैं , इसलिये ये अपूर्वस्थितिघात कहलाते हैं। इन स्थितिघातों के कारण अपूर्वकरण के प्रथम समय से चरम समय में स्थिति संख्यातवें भाग मात्र रह जाती है। (२) अपूर्वरसघात :- अशुभ कर्म का जो तीव्र रस सत्ता में होता है, उसका एक-एक अन्तर्मुहूर्त में घात करके मन्द मन्द करता है, | चित्रमय तत्वज्ञान ५९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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