Book Title: Chitramay Tattvagyan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 87
________________ नमस्कार महामन्त्र रोज बोलते हैं । इसलिये हमारी भी कर्मस्थिति अन्तः कोटाकोटी सागरोपम तो हो गई है । उसके बाद किसी को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति निसर्ग से यानी गुरु आदि के उपदेश के बिना ही हो जाती हैं, वह निसर्ग सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कही जाती है । अन्य किसी व्यक्ति को गुरु आदि के उपदेश से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है, वह अधिगम सम्यक्दर्शन की प्राप्ति कही जाती हैं। दोनों ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तीन करण यानी आत्मा के विशिष्ट अध्यवसाय से होती है | वे क्रमशः तीन करण निम्नलिखित होते हैं (१) यथाप्रवृत्तकरण (२) अपूर्वकरण व (३) अनिवृत्तिकरण । १. यथाप्रवृत्तकरण :- जैसे नदी के अन्दर पत्थर टकराता टकराता गोल बन जाता है । इसी तरह कर्म की स्थिति कम करने की इच्छा न होते हुए भी कष्ट सहन करते करते या इच्छा से कष्ट सहन करते करते जब कर्म स्थिति अन्तःकोटाकोटी सागरोपम हो जाती है, तब से यथाप्रवृत्तकरण होता है । यहाँ तक आकर वापस जीव नीचे भी चला जाता है और पुनः कर्म की स्थिति बढ़ा लेता है । अभव्य जीव भी ग्रन्थिदेश तक आ जाता है । किन्तु राग द्वेष की भयंकर गांठ पाकर वापस लौट जाता है । जैसे कोई दुबला व्यक्ति डाकू को देखकर वापिस भग जाता है। उपमा द्वारा राग द्वेष की भयंकर गांठ पाकर वापस नीचे जाता हुआ आदमी चित्र में बताया गया है । कर्म की स्थिति अन्त: कोटाकोटी सागरोपम होने के बाद किसी भव्य जीव का वीर्योल्लास इतना तेज हो जाता है कि वह आगे बढ़ने का प्रबल पुरुषार्थ करता है, तब जीव का वह चरम यानी अन्तिम यथाप्रवृत्तकरण कहलाता है । इसका काल अन्तर्मुहूर्त होता है । इसमें प्रति समय असंख्यात लोकाकाश जितने अध्यवसाय होते हैं और उनका इस करण के संख्यातवें भाग तक अनुकर्षण होता रहता है । इस अन्तर्मुहूर्त काल में अनेक नये नये स्थितिबंध पल्योपम के संख्यातवें भाग से न्यून न्यूनतर करता रहता है । यथाप्रवृत्तकरण का अन्तर्मुहूर्त पूर्ण होते ही अपूर्वकरण करता है | चित्रमय तत्वज्ञान ५८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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