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असत्कल्पना - ऊपर के वर्णन को ही कल्पना से समझा रहे है | कल्पना कीजिये कि अनिवृत्तिकरण का काल १००० समय (वास्तव में असंख्यात समय) १ स्थितिघात काल या अंतरकरण क्रियाकाल =२ समय, अन्तरकरण यानी बीच का अन्तर्मुहूर्त का काल = १००१ से ५००० समय तक | आवलिका = ५ समय । असंख्यात = १०.
अनिवृत्तिकरण के संख्यातवें बहुत भाग यानी कल्पना से पले से ९०० वें समय व्यतीत होने पर ९०१ वें से ९०२ वें समय तक = २ समय में स्थितिघात यानी अंतरकरण क्रियाकाल में अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय के बाद की अन्तर्मुहूर्त स्थिति को रिक्त कर लेता है । उन प्रदेशों को प्रथमस्थिति यानी अन्तरकरण के नीचे की स्थिति कल्पना से ९०३ वें समय से १००० वें समय तक प्रथमस्थिति व द्वितीयस्थिति यानी ५००० वें समय के ऊपर की स्थिति में ५००१ से ७००० वें समय में डालता हैं । जिससे अनिवृत्तिकरण के बाद यानी १००० समय के बाद उसे १००१ वें समय से ५००० वें समय तक उस जीव को मिथ्यात्व के कर्म प्रदेशों का अनुभव करना नहीं पडेगा । क्योंकि जीव वहां के कर्मप्रदेश पहेले ही खाली कर चूका हैं।
इस प्रकार ९०३ वें समय से १००० समय तक जो मिथ्यात्वमोहनीय कर्म की स्थिति रहती है, वह प्रथम कहलाती है । और ५००१ वें समय से लगाकर ऊपर की ७००० वें समय तक स्थिति द्वितीय स्थिति कहलाती है । उसके बाद प्रथम स्थिति का अनुभव करता हुआ जीव आगे बढ़ता है | जब २ आवलिका शेष रहती है अर्थात् ९९० समय व्यतीत हो जाते हैं, उसके बाद आगाल विच्छेद होता है। आगाल = दूसरी स्थिति में से प्रथम स्थिति में मिथ्यात्व के प्रदेश को लाकर मिलाना , आगाल कहलाता है । ९९१ वें समय से वह रुक जाता है | जब १ आवलिका शेष रहती हैं, तब उदीरणा विच्छेद होती है । उदीरणा यानी मिथ्यात्व कर्म के जो प्रदेश उदय में स्वभावतः नहीं आये, उन्हें आत्मा अपने प्रयत्न विशेष से उदय में लाता है । वह उदीरणा कहलाती है ९९५वें समय तक रहती है । अब ९९६ वें समय से वह रुक जाती है। | चित्रमय तत्वज्ञान
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