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एक एक अन्तर्महर्त में अनन्तवां भाग रस रहता है, उसे अपूर्व रसघात कहते हैं । इस प्रकार एक स्थितिघात के काल में हजारों रसघात हो जाते हैं । रसघात होने से कर्म की तीव्र फल देने की क्षमता कम हो जाती है। अपूर्वस्थितिबंध :- प्रति अन्तर्मुहूर्त पल्योपम के संख्यातवें भाग से न्यून न्यूनतर स्थितिबन्ध होता रहता है । क्योंकि कर्म का स्थितिबंध संक्लेश द्वारा ज्यादा ज्यादा होता रहता है और विशुद्धि से न्यून न्यूनतर होता रहता है । अपूर्वकरण में विशुद्धि होने से नये नये स्थितिबन्ध अन्तःकोटाकोटी सागरोपम प्रमाण होते हुए भी पूर्व पूर्व से पल्योपम के संख्यातवें भाग से न्यून न्यूनतर होते हैं । अपूर्वकरण में ऐसे संख्यात स्थितिबन्ध होते हैं । अपूर्वगुणश्रेणी :- अपूर्व स्थितिघात करते हुए जिन कर्म प्रदेशों को हटाकर नीचे रखता है, उसमें उदय समय में जितने कर्म स्कन्धों की रचना करता है, उनसे दूसरे समय में असंख्यात गुण, तीसरे समय में असंख्यात गुण, इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त के काल गुण यानी असंख्यात गुण क्रम से श्रेणि यानी रचना करना , उसे गुणश्रेणी कहते हैं। यह अपूर्व होने से अपूर्व गुणश्रेणी कहलाती है । असत्कल्पना से उदय समय में १०० कर्म प्रदेशों की रचना की, तो दुसरे समय में १० गणे यानी १००x१० = १००० कर्म प्रदेशों की रचना की । असत्कल्पना से असंख्यात = १० । अपूर्वगुणसंक्रम :- गुण यानी असंख्यातगुण के क्रम से संक्रम यानी पहले अबध्यमान अर्थात् पूर्व बद्ध अशुभ कर्मप्रदेशों का बध्यमान शुभ कर्मों में परिवर्तन करना । उन्हें शुभ कर्म प्रदेश के रूप में बना लेना । यहां यद्यपि मुख्यतः मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का अधिकार है। किन्तु उसका गुणसंक्रम नहीं होता, क्योंकि वह बध्यमान है । अनिवृतिकरण के चरम समय तक मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का बंध चालू रहता हैं । आयुष्य के सिवाय शेष कर्मों का गुणसंक्रम चालू होता है । ये पांच अपूर्वपदार्थ अपूर्वकरण में होते
इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त में अपूर्वकरण रूपी कुल्हाडे से मिथ्यात्व चित्रमय तत्वज्ञान
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