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|१३ सम्यग्दर्शन पाने के लिये ग्रन्थिभेद प्रक्रिया
केवलज्ञानियों ने दृश्यादृश्य सभी पदार्थो का वर्णन किया है । उन पर जब तक पूर्णतःश्रद्धा नहीं होती, तब तक उसे सम्यग्दर्शन नहीं होता है । सम्यग्दर्शन यानी केवलज्ञानियों ने विश्व के पदार्थों को जैसा बताया था, उसके मुताबिक पदार्थो का दर्शन यानी अद्भुत विश्वास होना, वह सम्यग्दर्शन कहलाता है । इस सम्यग्दर्शन को समकित भी कहते हैं । सम्यग्दर्शन यह केवलज्ञानियों द्वारा प्ररूपित पदार्थों पर अद्भुत श्रद्धा वाला आत्मपरिणाम है । इस आत्मपरिणाम को मिथ्यात्व मोहनीय कर्म रोकता है । मार्गानुसारी तक मन्द मिथ्यात्व से आत्मविकास होता है । मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उपशम आदि से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है । उसके बाद सम्यग्दर्शन से आत्म विकास बढता रहता है। इसलिये सम्यगदर्शन की प्राप्ति अब हम आपको समझा रहे है । आप जानते है कि भिन्न भिन्न कर्मों की उत्कृष्टस्थिति ७०,३०,२० कोटा-कोटी सागरोपम वगैरह शास्त्रों में बताई गई है।
सम्यग्दर्शन प्राप्ति की प्रक्रिया
इस संसार के अन्दर भटकता हुआ जीव कई प्रकार के कष्ट आदि अनिच्छा से भी सहन करके एक कोटाकोटी सागरोपम के अन्दर सातों कर्मो की स्थिति करता है, तब वह मिथ्यात्व की ग्रन्थि (गांठ) का भेदन करने के लिये उद्यत होता है । यह तीव्र राग द्वेष की गांठ है और यह दुर्भेद्य है । इस गांठ का जब तक भेदन नहीं होता, तब तक हम सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर सकते ।
अभव्य वगैरह इस ग्रन्थि के देश तक आ सकते हैं । ग्रन्थिदेश तक आने वाले सभी जीवों की कर्म की स्थिति अन्तःकोटाकोटी सागरोपम यानी एक कोटाकोटी सागरोपम के अन्दर हो जाती है । जब तक कर्म की इतनी स्थिति नहीं होती, तब तक द्रव्य से भी जीव 'नमो अरिहंताणं' नहीं बोल सकता । इस नियम से अब हम कह सकते हैं कि आप व हम
चित्रमय तत्वज्ञान
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