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कालचक्र
जैसे चक्र के आरे यानी विभाग होते हैं, वैसे ही कालचक्र के १२ आरे यानी विभाग होते हैं | कालचक्र के दो मुख्य विभाग होते हैं ।
(१) अवसर्पिणी (२) उत्सर्पिणी । अवसर्पिणी में ६ और उत्सर्पिणी में भी ६ आरे होते हैं । अवसर्पिणी में क्रमश: शुभ की हानि और अशुभ की वृद्धि होती है । उत्सर्पिणी में क्रमशः अशुभ की हानि व शुभ की वृद्धि होती है।
अवसर्पिणी के १० कोटा कोटी सागरोपम + उत्सर्पिणी के १० कोटाकोटी सागरोपम = २० कोटाकोटी सागरोपम = १ कालचक्र
कालचक्र का विशेष वर्णन इस प्रकार है। (१) पहला आरा - इसका दूसरा नाम सुषम सुषम (सुख ही सुख)
आरा है । इसका प्रमाण चार कोटा - कोटी सागरोपम है । इस आरे के प्रारम्भ में तीन गाऊ का शरीर व तीन पल्योपम का आयुष्य होता है। इस आरे में मनुष्य के शरीर में २५६ पसलियों होती है । पहला संघयण व पहला संस्थान होता है । १० प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं । वे युगलिकों की ईच्छा पूर्ण करते हैं । तीन - तीन दिन व्यतीत होने पर एक तुवर जितना भोजन करते हैं । ६ महीने का आयुष्य शेष रहने पर स्त्री एक युगल = पुत्र-पुत्री को जन्म देती है । ४९ दिन तक पालन पोषण करती है | बाद में वह युगल स्वावलम्बी
बन जाता है । वे सभी मर कर देव ही बनते हैं। (२) दूसरा आरा :- इसका दूसरा नाम सुषम (सिर्फ सुख) आता है
इसका प्रमाण तीन कोटा कोटी सागरोपम है । इसके प्रारम्भ में दो गाऊ का शरीर व २ पल्योपम का आयुष्य होता है । १२८ पसलियां होती है । २-२ दिन के बाद एक बैर जितना भोजन करते हैं । ६ महीने शेष रहने पर स्त्री एक युगल को जन्म देती
चित्रमय तत्वज्ञान
CERVELESS