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पर जाती है । यहां मिथ्यात्व का उदय नहीं होता । ज्यादा से ज्यादा छ:आवलिका व कम से कम १ समय होने पर मिथ्यात्व का उदय होने से आत्मा पहले गुणस्थानक पर जाती है । मिथ्यात्व, कषाय व उनके क्षयोपशम, उपशम व घातिकर्मो के तारतम्य से
आत्मा गुणस्थानक पर ऊंचे नीचे चढ़ती उतरती है। (३) तीसरा मिश्र गुणस्थानक :- इस गुणस्थानक में आने पर आत्मा
सुदेव, सुगुरु, सुधर्म के ऊपर राग भी नहीं करती एवं कुदेव, कुगुरु व कुधर्म पर द्वेष भी नहीं करती । जैसे नारीयल द्वीप के मनुष्य को अन्न के ऊपर राग-द्वेष नहीं होता । इसका काल अन्तर्मुहूर्त है | आत्मा वीतराग भगवान अवीतराग की भी पूजा
वगैरह करती है। (४) चौथा गुणस्थानक :- मिथ्यात्व के उपशम, क्षयोपशम व क्षय से
सम्यकत्वी बनी हुई आत्मा यह गुणस्थानक प्राप्त करती है । यहां पर आत्मा को सुदेव सुगुरु के ऊपर अडिग श्रद्धा होती है । उपशम संवेग निर्वेद, अनुकम्पा आस्तिक्य ये पांच इसके। लक्षण हैं । यहां पर कम से कम १ समय या अन्तर्मुहूर्त से।
लगाकर साधिक ६६ सागरोपम तक आत्मा रह सकती है। (५) पांचवां गुणस्थानक :- सम्यकत्व पाने पर १२ व्रतो में से एक
आदि व्रत का पालन करने वाली आत्मा देशविरति कहलाती है। सामायिक वगैरह भी करती है | छठां गुणस्थानक :- आत्मा पुरुषार्थ करके सर्वविरति यानी सब पापों से विराम पाकर यह गुणस्थानक प्राप्त करती है । यहां पर पांच महाव्रतों का पालन होता है | फिर भी प्रमाद हो जाने से अतिचार लग जाता है । यह आत्मा साधु जीवन का अतिचारपूर्वक पालन करती है । इसलिये इसका नाम प्रमत्तसंयत गुणस्थानक
(७) सातवां गुणस्थानक :- प्रमाद छोडकर शुभ मन वचन काय योग
में आत्मा गुप्त यानी तल्लीन बन कर यह गुणस्थानक प्राप्त
चित्रमय तत्वज्ञान
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