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(३) उचित व्यवहार :- माता, पिता, रिश्तेदार, दीन, दुःखी के साथ
उचित व्यवहार रखता है । मोक्ष की इच्छा भी उसे जग सकती है ।
द्विर्बन्धक :- चरमावर्त में प्रवेश करने के बाद जीव कभी तीव्र मिथ्यात्व के उदय से मोहनीय कर्म की ७० कोटाकोटी सागरोपम स्थिति को बंध कर लेता है । कभी मंद मिथ्यात्व से कम स्थिति भी बांधता है । परंतु कुल दो बार से ज्यादा बार मोहनीय कर्म की ७० कोटाकोटी प्रमाण स्थिति नहीं बांधता ।
सकृत् बन्धक :- उसके बाद जीव एक बार से ज्यादा मोहनीय कर्म की ७० कोटाकोटी प्रमाण स्थिति नहीं बांधता ।
अपुन र्बन्धक :- चरमावर्त में प्रवेश होने के बाद पाप प्रवृत्ति व वृत्ति कम होती रहती है, अन्धकार से धीरे धीरे बाहर निकलता है और द्विर्बन्धक व सकृत् बन्धक बनता है । अक वक्त ऐसा आता है, कि वह अपुनर्बन्धक बन जाता है । अपुनर्बन्धक यानी यह जीव अब मोहनीय कर्म की ७० कोटी कोटी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति या मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट रस नहीं बांधेगा । उसके तीन गुण होते हैं । (१) तीव्र भाव से पाप न करे (२) संसार के प्रति राग न हो (३) उचित स्थिति का सेवन। (१) तीव्रभाव से पाप न करे : यद्यपि संसार में रहा हुआ है, इसलिये पाप प्रवृत्ति करता है, मगर तीव्र भाव से नहीं करता । जैसे रास्ते चलते वख्त सावधानी से न चलने से पैर के नीचे मेढक दब भी जाये, मगर जान बुझ कर क्रूरता से मेढक पर पैर रख कर उसे मारे नहीं ।
(२) संसार के प्रति राग नहीं : यद्यपि सांसारिक कार्य करता है, मगर संसार के कार्य को रस पूर्वक नहीं करता । जैसे शादी वगैरेह में जाता नहीं, फिर भी जाना पड़े, तो उसमें आनंद नहीं मानता ।
(३) उचित स्थिति सेवन : उचित स्थिति सेवन यानी माता-पिता आदि को नमस्कार वगैरह उचित मर्यादा का पालन करने का गुण होता है ।
मार्गाभिमुख :- मार्ग यानी मोक्षमार्ग, वह सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र
चित्रमय तत्वज्ञान
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