Book Title: Chitramay Tattvagyan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

View full book text
Previous | Next

Page 51
________________ आदि की व्यवस्था होती हैं और तीर्थंकर के कल्याणक के अवसर पर जिनके आने का आचार होता है । वे कल्पोपपन्न देव कहलाते हैं। उसके मुख्य ३ भेद व उत्तर भेद २४ होते हैं । वे इस प्रकार हैं । (१) १२ देवलोक + (२) ९ लोकान्तिक + (३) ३ किल्बिषिका ये सभी २४ भेद पर्याप्त व अपर्याप्त होते हैं । इसलिये २४४२-४८ भेद होते हैं। (१) १२ देवलोक के नाम इस प्रकार हैं। (१) सौधर्म (२) ईशान (३) सनत्कुमार (४) महेन्द्र (५) ब्रह्मलोक (६) लान्तक (७) महाशुक्र (८) सहस्त्रार (९) आनत (१०) प्राणत (११) आरण व (१२) अच्युत । (२) लोकान्तिक :- ये पांचवें देवलोक के देव होते हैं, ये एक ही मनुष्य भव करके मोक्ष में जाने वाले होते हैं, इसलिये लोक यानी संसार, उसके अन्त में रहे हुए लोकान्तिक कहलाते हैं । तीर्थंकर भगवान द्वारा दीक्षा ग्रहण करने के १ वर्ष पहले दीक्षा ग्रहण करने हेतु विनंति करने के लिये देव आते हैं । इनके ९ भेद होते हैं। (३) किल्बिषिक :- हल्की जाति के देव जो देवलोक में ढोल बजाते हैं झाडू निकालते हैं, इत्यादि तुच्छ काम करते हैं । वे किल्बिषिक कहलाते हैं | उसके ३ भेद होते हैं । (१) पहले व दूसरे देवलोक (२) तीसरे देवलोक व (३) छढे देवलोक के नीचे होते हैं । (२) कल्पातीत :- जहाँ पर इन्द्र, सामानिक देव आदि की व्यवस्था नहीं होती और तीर्थंकर जन्म आदि के अवसर पर भी अपना स्थान छोड़ कर नीचे नहीं आते । उनके मुख्य भेद दो होते (१) ग्रैवेयक (२) अनुत्तर । (१) ग्रैवेयक :- बारहवें देवलोक के ऊपर क्रमशः नौ ग्रैवेयक हैं, इसलिये ग्रैवेयक के ९ भेद होते हैं । (२) अनुत्तर :- ग्रैवेयक के ऊपर समानतल पर चारों दिशा में विजय चित्रमय तत्वज्ञान ३४ पानमाला Mamw-Telnehitrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114