Book Title: Chitramay Tattvagyan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 49
________________ उत्तर :- (१) जहाँ तक हो सके, पिशाब घर में पिशाब न करके खुली जगह में करना चाहिये । (२) शौच जाने के लिये खुली जगह मिल सकती हो, तो शौचालय में नहीं जाना चाहिये । (३) कप, श्लेष्म व थुकने के बाद उसमें मिट्टी पैर आदि से मिला देनी चाहिये । (४) पानी पीने के बाद झूठा लोटा या गिलास मटकी में नहीं डालना चाहिये । रुमाल वगैरह से पोंछकर डालना चाहिये । (५) भोजन करने के बाद थाली धोकर पानी पी लेना चाहिये । (६) भोजन के बाद अन्न झूठा नहीं छोड़ना चाहिये । (७) पसीने के कपड़े शीघ्र सूखा देने चाहिये । देव के १९८ भेद देव के मुख्य रूप से ४ भेद होते हैं । (१) भवनपति (२) व्यंतर (३) ज्योतिष (४) वैमानिक | (२) ४ (१) भवनपति :- वर्तमानकाल में जिस पर हम स्थित है, इस रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई १,८०,००० योजन (१ योजन कोश) है। उसके ऊपर के १००० योजन व नीचे के १००० योजन छोड़कर बीच में भवनपति देव है, वे विमान में नहीं रह कर भवन में रहते हैं। इसलिये वे भवनपति कहलाते हैं । इनके मुख्य रूप से दो भेद होते हैं । (i) असुरकुमार आदि :- ये सभी पूर्वोपार्जित पुण्य से दैविक सुख का उपभोग करते हैं । इनके १० भेद होते हैं । (ii) परमाधामी - यद्यपि ये भी असुरकुमार देव ही होते हैं । किंतु ये नरक के जीवों को कौतुकता से दुःख देकर आनंद मानते हैं । इसलिये दुःख देने का कार्य होने से इनका अलग भेद बताया है । इनके १५ भेद होते हैं। इस प्रकार भवनपति के १०-१५-२५ कूल भेद हुए । वे सभी पर्याप्त व अपर्याप्त होने से २५x२=५० भेद होते हैं । व्यंतर :- इनके मुख्य ३ भेद होते हैं । चित्रमय तत्वज्ञान ३२ www.jainelibrary.org

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