Book Title: Chitramay Tattvagyan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 50
________________ (१) व्यंतर :- रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के १००० योजन में से ऊपर के १०० योजन व नीचे १०० छोड़कर बीच के ८०० योजन में व्यंतर देवों के रमणीय स्थान होते हैं । इनके ८ भेद होते हैं । वाणव्यंतर :- यह व्यंतर जाति का ही उपभेद है । रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के १०० योजन में से ऊपर के १० योजन व नीचे के १० योजन छोड़कर बीच के ८० योजन में वाणव्यंतर देव रहते हैं । उनके ८ भेद होते हैं । (३) तिर्यग्नुंभक :- ये भी देव व्यंतर निकाय के ही होते हैं । किन्तु ये तीर्थंकर भगवान के जन्म व वर्षीदान आदि प्रसंग पर बिना मालिक के धन, धान्य, सुवर्ण, रत्न आदि दूसरी जगह से लाकर खजाने में रखते हैं । इनके १० भेद होते हैं। इस प्रकार व्यंतर के ८+८+ १०=२६ भेद हुए। वे सभी पर्याप्त अपर्याप्त होते हैं । इसलिये २६x२=५२ भेद व्यंतर देव के होते (३) ज्योतिष :- समभूतला पृथ्वी से ७९० से ९०० योजन की ऊंचाई में ज्योतिष देवों के विमान होते हैं। उनके (१) सूर्य (२) चंद्र (३) ग्रह (४) नक्षत्र व (५) तारे, इस प्रकार ५ भेद होते हैं । उनमें से हरेक के चर व स्थिर दो दो भेद होते हैं । इसलिये ज्योतिष के ५४२-१० भेद होते हैं । वे सभी पर्याप्त व अपर्याप्त हैं। अतः ज्योतिष के कुल १०x२-२० भेद होते हैं | चर= ढाई द्वीप में चन्द्र, सूर्य वगैरह जिन ज्योतिष देव के विमान मेरु पर्वत के चारों ओर प्रदक्षिणा के क्रम से घूमते हैं। उनमें रहने वाले ज्योतिष देव चर कहलाते हैं । ढाई - द्वीप के बाहर चन्द्र, सूर्य वगैरह स्थिर रहते हैं, वे स्थिर कहलाते हैं। (४) वैमानिक :- समभूतला पृथ्वी से १ राजलोक तक व उसकी ऊंचाई के ऊपर विमान में रहने वाले देव वैमानिक कहलाते हैं । इसके मुख्य रूप से दो भेद होते हैं । (१) कल्पोपपन्न (२) कल्पातीत । १ कल्पोपपन्न : जहां पर इन्द्र, सामानिक , सेनापति, सैन्य, चित्रमय तत्वज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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