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आचार्यः सर्वचेष्टासु लोक एव हि धीमतः । अनुकुर्यात्तमेवातो लौकिकेऽर्थे परीक्षकः ॥ ( वा० सू० २ )
सांसारिक कार्यो में लोक ही सबसे बडा आचार्य होता है। लोक का अनुसरण करते हुए जो भी उत्तम आदर्श प्रतीत हो उसी का ग्रहण करना कल्याणकर होता है । यही लोक की माँग और आग्रह आधुनिकता की ओर हो तो वैद्य का भी कर्तव्य हो जाता है कि वह आधुनिक हो बने, आज का वैद्य उभयज्ञ होता है । उसको सम्पूर्ण प्राचीन शास्त्रों के ज्ञान के साथ ही साथ नवीनतम ज्ञान की शिक्षा भी मिलती रहती है, फलतः वह कुटीव्यवसाय और उद्योगजनित उभयविध ज्ञानों का सामंजस्य स्थापित करने में समर्थ रहता है । वह यथावश्यक प्राचीन विधियों से या अर्वाचीन विधियों से स्वास्थ की रक्षा या रुग्ण मनुष्यों की चिकित्सा करने में समर्थ रहता है । उदाहरण के लिए ओपधि को शरीर के भीतर पहुँचाने के बहुत से नए-नए मार्ग आविष्कृत है। इनमें सूचीवेध के द्वारा ओपधियों का अन्त प्रवेश लोक न बहुत प्रचलित है । जनता की माँग भी इस सम्बन्ध में बहुत है । यदि वैद्य इस सूचीबंध क्रियाओं से अनभिज्ञ रहे तो वह लोकानुरंजन नहीं कर सकता और चिकित्सा के व्यवसाय में भी सफल नहीं हो सकता । अतः वाध्य होकर उसे उस कार्य में प्रवृत होना पडता है | आचार्य वाग्भट ने लिखा है कि अर्थ, धर्म और काम से रहित कोई काम न आरम्भ करे उनका सेवन बिना किसी का विरोध किया करे | सभी धमो से प्रत्येक पद पर मध्यम ( बीचवाले ) नार्ग का अनुसरण करे |
त्रिवर्गशून्यं नारम्भं, भजेत्तञ्चाविरोधयन् । अनुयायात्प्रतिपदं सर्वधर्मेषु मध्यमाम् ॥
जैसा कि ऊपर में इंगित किया जा चुका है आधुनिक चिकित्सा एक व्यवसाय के रूप में प्रचलित है यदि चिकित्सा का अयोपार्जन ही एकमात्र लक्ष्य हो तो स्वाभाविक है वैद्य भी अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए व्यावसायिक ओषधियों को ही अपनावे | इन ओपधियों को नशंसा और काष्ठ ओषधियों की निन्द्रापरक बहुत सी परिहासोक्तियाँ पायी जाती हैं, जिनका ऊपर में उल्लेख भी हो चुका है । अब रम ओषधियों की निन्दा करते हुए और इलेक्शन से प्रयुक्त ओषधियों की प्रशसा में अपने एक मित्र की परिहासोक्ति प्रथार्थ प्रतीत होती है ।
अल्पसात्रोपयोगित्वादरुचेरप्रसंगत |
क्षिप्रं च फलदायित्वात् सूचीवोऽधिको मतः ॥
भारतवर्ष एक विशाल देश है, इस देश से नहीं मिलती । आसाम प्रदेश के लिए जो एक
वेषभूषा की एक आकारता सौम्यद्वेष है, पंजाब के लिए