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सकता है। 'प्रतीच्य-प्राचीच्य का मेल सुन्दर' यह रहा उनका आदर्श । इसी आदर्श को सामने रखकर आयुर्वेद का उत्थान या विकास संभव है। आज का आयुर्वेद एवं उनके ज्ञाता भी इसी आदर्श के पुजारी हैं। इसके अतिरिक्त कोई दूसरा चारा नहीं।
इसी उदार भावना से प्रेरित हो आधुनिक आयुर्वेद में जहाँ भी अपूर्णता प्रतीत हुई उसको आधुनिक चिकित्सा विज्ञान से पूर्ण करके अभिनव आयुर्वेद का जन्म होता है । इन अभिनव आयुर्वेदज्ञों को शास्त्रों के प्राचीन ज्ञान तथा आधुनिक विज्ञान के नवीनतम ज्ञान के सम्मिश्रण से उभयज्ञ बनाया जाता है।
आयुर्वेदज्ञ का प्राचीन स्वरूप प्राचीन युग में चिकित्सा का कर्म एक पुण्य कर्म की दृष्टि से किया जाता था 'चिकित्सतात् पुण्यतमं न किंचित् ।' कुछ सीमित क्षेत्रों में ही वह व्यवसाय के रूप में स्वीकृत किया गया है। यद्यपि वैद्यक विद्या की प्रशंसा अर्थकरी विद्या के रूप में पायी जाती है तथापि चिकित्सा का उद्देश्य कथमपि अर्थोपार्जन व्यवसाय के रूप में नहीं रहा जैसा कि निम्नलिखित वैद्य के गुणों से स्पष्ट है।
आदर्श भिषक गुरोरधीताखिलवैद्यविद्यः पीयूषपाणिः कुशलः क्रियासु | गतस्पृहो धैर्यधरः कृपालुः शुद्धोऽधिकारी भिषगीशः स्यात् ।
वैद्य-कुलीन, धार्मिक, कोमल स्वभाव वाला, सुरक्षित, सर्वदा सावधान, निर्लोभ, सजन, भक्त, कृतज्ञ, देखने में सुन्दर (प्रियदर्शन ), क्रोध-रूक्ष-मदईर्ष्या-आलस्य आदि दोपों से रहित, जितेन्द्रिय, क्षमावान, पवित्र, शील और दया से युक्त, मेधावी, न थकने वाला, अनुरक्त, हितैषी, चतुर, समझदार, वैज्ञानिक, छलरहित और होशियार होना चाहिए ।
कुलीन धार्मिकं निग्धं सुभृतं सततोत्थितम । अलुब्धमशठं भक्तं कृतनं प्रियदर्शनम् ।। क्रोधपारुष्यमात्सर्यामदालस्यविवर्जितम् । जितेन्द्रिय क्षमावन्तं शुचिशीलदयान्वितम् ।
मेधाविनमसंश्रांतमनुरक्तं हितैपिणम् ।। ये ऊँचे आदर्श हैं, इन आदों का पालन करने वाला वैद्य व्यवसाय-बुद्धि से प्रेरित होकर अपने व्यवसाय में सफल नहीं हो सकता, क्योंकि उसके आदर्श