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विशुद्ध सेवा की भावना से ओत-प्रोत है। इस प्रकार का वैद्य आर्तजनों की सेवा करता हुआ कृतार्थ हो सकता है। ___ वैद्यों के अन्यान्य आदर्शों का संग्रह विभिन्न आयुर्वेद ग्रंथों में वर्णित वैद्य की परिभाषाओं से किया जा सकता है। यहाँ पर एक और उदाहरण देकर वैद्य की समाजसेवा के उच्च आदशों का उदाहरण दिया जा रहा है ।
आयुर्वेद मे अभ्यासमाप्त, प्रियदर्शन, युक्ति और कारणों का जानकार वैद्य कहलाता है । व्याधि का पूर्ण रूप से ज्ञाता, वेदना का निग्रह करने वाला, वैद्य ही वैद्य है, वैद्य जोवन का मालिक नहीं है।
आयुर्वेदकृताभ्यासः सर्वतः ग्रियदर्शन। युक्तिहेतुसमायुक्त एप वैद्योऽभिधीयते ॥ (क्षे० कु०) व्याधेस्तत्त्वपरिज्ञान वेदनायाश्च निग्रहः । एतद्वैद्यस्य वैद्यत्व न वैद्यः प्रभुरायुप || (यो० रे०)
यहाँ पर यह भी स्मरण रखना चाहिये कि चिकित्सा का कर्म निर्लोभ होकर करते हुए भी निष्फल नहीं होता। कही पर मित्रता पैदा हो जाती है, कहीं पर पैसा भी मिल जाता है, कही पर यश और सम्मान मिलता है, कही पर धर्म या पुण्य का कर्म सम्पन्न हो जाता है और कुछ भी न मिले तो कम से कम क्रियाभ्यास ( Practical experience ) तो निश्चित ही मिलता है, चिकित्सा कचिदपि निष्फल नहीं होती
क्वचिदर्थ. क्वचिठमैत्री क्वचिद्धर्मो कचिद्यशः । क्रियाभ्यासः क्वचिच्चैव चिकित्सा नास्ति निष्फला ।
आज का भिपक उपर्युक्त उन आदर्शों को ध्यान में रखते हुए आज का वैद्य अपने कार्यक्षेत्र मे उतरता है। उसको आधुनिक युग के चिकित्सा-व्यवसाय के साथ प्रारम्भ से ही मुकाबला करना पडता है । प्राचीन युग के वैद्यादर्श ( Medical ethics ) जो मैत्री, करुण और आर्तजनों की सेवाभावना से दयाई सिद्धातों पर व्यवस्थित थे, उनको तिलाञ्जलि देनी पडती है और उसे भी आधुनिक चिकित्सा आदशो ( Modern medical Ethics ) को वाध्य होकर अपनाना पडता है । अन्त. के परिवर्तनों के साथ ही उसे बाह्य परिवर्तनों की भी आवश्यता प्रतीत होती है, फलत वह बाह्याडंबरों को भी अपनाना अपना कर्त्तव्य समझता है । यद्यपि उसका आन्तरिक उद्देश्य सदैव पुनीत रहता है फिर भी वाहर से वह एकाकारता को स्वीकार करते हुए वचन, कर्म, संज्ञा और परिधान वही ग्रहण करता है जो आधुनिक चिकित्सा जगत् के नियामक लोग ।