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बचपन से ही मैं शासनस्तंभ मुनिश्री नत्थमलजी के साथ रहा। उन्हीं के साथ
मुनि सोहनलालजी । दोनों का मुझे संरक्षण, संवर्धन और संपोषण मिला । वे काव्य के अथ - इति से जुड़े रहे । काव्य की लिपि तथा कुछ सर्गों का अनुवाद कर उन्होंने मुझे उपकृत किया । आज मैं उनके प्रति हृदय की समस्त भावनाओं से श्रद्धानत हूं । काश ! आज वे होते ! !
मुनि दुलहराजजी प्रारम्भ से ही मुनिश्री नत्थमलजी के प्रति श्रद्धासिक्त रहे हैं । मुनिश्री के मन में इनके प्रति समादर भाव था, वात्सल्य था और जब कभी ये मिलते तब मुनिश्री इनके विनीत व्यवहार से बहुत प्रसन्न होते । मुनि दुलहराजजी ने महाकाव्य के संपादन का कार्य हाथ में लिया और मुझे प्रसन्नता है कि उस महाकाव्य के दस सर्ग पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत हो रहे हैं । यह प्रथम खंड है। मुझे ज्ञात है कि उन्हें इस संपादन और अनुवाद में यत्र-तत्र परिवर्तन, परिवर्द्धन करने में कितना क्या आयास करना पड़ा । अनेक बाधाओं के बावजूद भी इन्होंने अपने व्यस्त कार्यक्रम को एक बार विराम देकर इस कार्य को प्राथमिकता दी, मैं इस उपक्रम के लिए इनको शत-शत साधुवाद देता हूं, आभार प्रदर्शित करता हूं । मूल काव्यकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर इन्होंने मुनिश्री के प्रति अपनी श्रद्धा को अभिव्यक्त किया है । काव्य के अनुवाद को संवारने सजाने तथा उसे जनभोग्य बनाने का सारा श्रेय इन्हीं को है ।
मैं गणाधिपति तुलसी तथा आचार्य महाप्रज्ञ के प्रति अपनी शत-शत वंदना प्रेषित करता हूं और यह कामना करता हूं कि उनकी छत्रछाया में मैं अपनी संयम - यात्रा का निर्बाधरूप से वहन करता रहूं, ज्ञान- दर्शन - चारित्र की अभिवृद्धि करता रहूं ।
स्वर्गीय मुनिश्री डूंगरमलजी तथा साथी मुनिश्री चंपालालजी के प्रति मैं अत्यन्त कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं, जिन्होंने पग-पग पर प्रोत्साहित कर मुझे आगे बढ़ाया है ।
अंत में धर्मसंघ के सभी सदस्यों के प्रति मंगलभावना के साथ मैं इस 'पुरोवाक्' को विराम देता हूं ।
सेवाकेन्द्र
छापर, १-४-९७
मुनि नगराज ( सरदारशहर )