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भक्तामर स्तोत्र
आलम्बन - सहारे ( जिनपादयुगं ) जिनेन्द्र भगवान् के दोनों चरणों को ( सम्यक् ) अच्छी तरह से ( प्रणम्य ) प्रणाम करके (यः) जो ( सकल वाङ् मय-तत्त्वबोधात् ) समस्त द्वादशांग के ज्ञान से ( उद्भूत - बुद्धि- पटुभिः ) उत्पन्न हुई बुद्धि के द्वारा चतुर (सुरलोक - नाथैः) इन्द्रो के द्वारा (जग वतयचित्तहरैः) तीनों लोकों के प्राणियों के चित्त को हरने वाले और ( उदार ) उत्कृष्ट ( स्तोत्र ) स्तोत्रों से ( संस्तुतः ) स्तुत किये गए थे, जिनकी स्तुति की गई थी (तम् ) उन ( प्रथमम् ) पहले ( जिनेन्द्रम् ) जिनेन्द्र ऋषभदेव की ( अहम् अपि ) मैं भी ( किल) निश्चय से ( स्तोष्ये) स्तुति करूंगा । ॥१-२॥
भावार्थ-भक्तिमान् देवताओ के नमस्कार करते समय भुंके हुए मुकुटों में लगी मणियों की प्रभा को भी उद्भासित ( चमकदार ) करने वाले, पापरूपी अन्धकार के समूह को नाश करने वाले, संसार-समुद्र में डूबते हुए मनुष्यों को युग की आदि में आलंबन (आधार, सहारा ) बनने वाले भगवान् जिनेश्वरदेव के दोनों चरणों में भली भाँति प्रणाम करके
समस्त शास्त्रों के तत्त्वज्ञान से उत्पन्न होने वाली
निपुण बुद्धि द्वारा अतीव चतुर बने हुए स्वर्गाधिपति
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