Book Title: Bhaktamara stotra
Author(s): Mantungsuri, Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 75
________________ ६६ भक्तामर स्तोत्र : १६ : निशिदिन शशिरविको नहीं काम, तुम मुखचन्द हरैतमधाम । जो स्वभावत उपजै नाज, सजल मेघतें कौनहु काज || : २० : जो सुबोध सोहै तुममाहिं, हरि-हर आदिक में सो नाहि । जो दुति महारतन में होय, काचखंड पावै नहि सोय || नाराच छंद : २१ : सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया, स्वरूप जाहि देख वीतरांग तू पिछानिया । कछू न तोहि देखके जहाँ तुही विसेखिया, मनोग चित्तचोर और भूल हू न देखिया ॥ : २२ : अनेक पुत्रवंतिनी नितंबिनी सपूत हैं, न तो समान पुत्र और माततें प्रसूत हैं | दिशा धरत तारिका अनेक कोटि को गिनें, दिनेश तेजवंत एक पूर्व हो दिशा जनै ॥ : २३ : पुरान हो, पुमान हो, पुनीत पुण्यवान हो, कहें मुनीश अन्धकार-नाश को सुभान हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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