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भक्तामर स्तोत्र
: १६ :
निशिदिन शशिरविको नहीं काम, तुम मुखचन्द हरैतमधाम । जो स्वभावत उपजै नाज, सजल मेघतें कौनहु काज ||
: २० :
जो सुबोध सोहै तुममाहिं, हरि-हर आदिक में सो नाहि । जो दुति महारतन में होय, काचखंड पावै नहि सोय || नाराच छंद
: २१ :
सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया, स्वरूप जाहि देख वीतरांग तू पिछानिया । कछू न तोहि देखके जहाँ तुही विसेखिया,
मनोग चित्तचोर और भूल हू न देखिया ॥ : २२ :
अनेक पुत्रवंतिनी नितंबिनी सपूत हैं,
न तो समान पुत्र और माततें प्रसूत हैं | दिशा धरत तारिका अनेक कोटि को गिनें,
दिनेश तेजवंत एक पूर्व हो दिशा जनै ॥ : २३ : पुरान हो, पुमान हो, पुनीत पुण्यवान हो, कहें मुनीश अन्धकार-नाश को सुभान हो ।
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