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भक्तामर स्तोत्र
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-जिन्होंने वर्तमान कालचक्र की आदि में प्रजापति ब्रह्मा के रूप में तत्कालीन प्रजा की दुःख स्थिति को जान कर, जीने की कामनावाले मरणोन्मुख प्रजाजनों को सर्वप्रथम जीवनोपयोगी कृषि आदि कर्मों में शिक्षित किया, तदनन्तर तत्त्वदर्शी प्रभु अद्भुत आत्म-विकास । को प्राप्त कर सभी प्रकार के ममत्व - भाव से विरक्त हो गए, तत्त्ववेत्ता ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ हो गए।
विहाय यः सागर-वारि-वाससं, वधूमिवेमां वसुधा • वधू सतोम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकु-कुलादिरात्मवान् , प्रभुः प्रवद्वाज सहिष्णुरच्युतः ॥३॥ -जो इक्ष्वाकुकुल के आदि पुरुष थे, मुमुक्षु थे, आत्मवान् अर्थात् इन्द्रियों के विजेता समर्थ प्रभु थे । वधू के समान सुन्दर सागरवसना वसुधा वधू को अर्थात समुद्रपर्यन्त भूमण्डल के विशाल राज्य को त्यागकर, जिन्होंने मुनि-दीक्षा धारण की। जो उग्र परीषही को सहन करने वाले सहिष्णु थे, फलतः जो सदा अच्युत रहे, साधना-पथ से कभी भी चलायमान नहीं हुए।
स्वदोष - मूलं स्व - समाधितेजसा, निनाय यो निर्दय - भस्मसात-क्रियाम् ।
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