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वृषभ-जिन-स्तोत्र
आचार्य समन्तभद्र स्वयम्भुवा भूत - हितेन भूतले, समञ्जस - ज्ञान - विभूति - चक्षुषा । विराजितं येन विधुन्वता तमः,
क्षपाकरेणेव गुणोत्करः करैः ॥१॥ --जो अन्य किसी सहायक के बिना परमात्मपद पाने वाले स्वयंभू थे, जो प्राणिमात्र का हित करने वाले थे, सम्यक-ज्ञान की विभूति स्वरूप सर्वज्ञतारूपी अद्वितीय ज्ञाननेत्र के धारक थे, अपने एक-से-एक समुज्ज्वल गुणों की ज्योति-किरणों से अज्ञान अन्धकार को दूर करते हुए भूमण्डल पर ऐने शोभायमान थे, जैसे अपनी प्रकाशमान शीतल किरण से रात्रि के अन्धकार को दूर करता हुआ पूर्णचन्द्र शोभित होता है ।
प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः, शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्ध - तत्त्वः पुनरद्भुतोदयो, ममत्वतो निविविदे विदांवरः ॥२॥
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