Book Title: Bhaktamara stotra
Author(s): Mantungsuri, Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 77
________________ ६.८ भक्तामर स्तोत्र : २८ : तरु अशोकतर किरन उदार, तुम तन शोभित है अविकार । मेघ-निकट ज्यों तेज फुरंत, दिनकर दिपै तिमिर - निहनंत ॥ : २६ : सिंहासन मनिकिरणविचित, ता पर कंचन बरन पवित्र । तुमतनुसोभित किरन विथार, ज्यों उदयाचल रवि तमहार ॥ : ३० : कुंदपुहुप सित चमर ढरंत, कनक वरन तुम तनु शोभंत । ज्यों सुमेरुतट निर्मल काँति, झरना भरे नीर उमगांति ॥ : ३१ : ऊँचे रहैं सूर्य - दुति लोप, तीन लोक की प्रभुता कहैं, तीन छत्र तुम दिप अगोप । मोती झालर सों छवि लहैं । 100 ३२ : : दुंदुभि शब्द गहर गंभीर, चहुं दिश होय तुम्हारे धीर । त्रिभुवन जन शिवसंगम करें, मानो जय-जय रव उचरें ॥ : ३३ : मंद' पवन गन्धोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पुहुपसुवृष्ट । देव करें विकसित दल सार, मानो द्विजपंकति अवतार | : ३४ : तुमतन भामण्डल जिनचन्द, सब दुतिवंत करत है मन्द | कोटि संख रवितेज छिपाय, शशि निर्मलनिशि करे अछाय ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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