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भक्तामर स्तोत्र
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६५
: १२ :
प्रभु तुम वीतराग-गुन लीन, जिन परमाणु देह तुम कीन । हैं इतने ही ते परमान, यातें तुम सम रूप न आन ॥
: १३
कहाँ तुम मुख अनुपम अविकार, सुरनरनाग नयनमनहार । कहाँ चन्द्रमण्डल सकलंक, दिन में ढाकपत्र - सम रंक || : १४ :
पूरनचन्द्र जोति छविवंत, तुम गुन तीन जगत लंघंत । एकनाथ त्रिभुवन आधार, तिन विचरत को सके निवार ॥
: १५ :
जो सुरतियविभ्रम आरम्भ,मन न डिग्यो तुमतौ न अवंभ । अचल चलावे प्रलय समीर, मेरुशिखर डगमगे न धीर ॥
: १६ :
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धूमरहित बाती गतनेह, परकाशै त्रिभुवन घर येह । वातगम्य नाहीं परचंड, अपर दीप तुम जलो अखण्ड ||
: १७ :
छिपहु न लुपहु राहु की छांहिं, जग प्रकाशक हो छिनमांहि । घन - अनवर्त्त दाह - विनिवार, रवि ते अधिक धरौ गुनसार ॥
: १८ :
सदा उदित विदलित-तममोह, विघटित मेघ - राहु-अवरोह । तुम मुखकमल अपूरव चन्द, जगत विकाशी जोति अमंद ॥
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