Book Title: Bhaktamara stotra
Author(s): Mantungsuri, Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 24
________________ भक्तामर स्तोत्र (इह) इस लोक में (आश्रितम्) अपने आश्रित जन को (भूत्या) सम्पति-ऐश्वर्य से (आत्मसमम्) अपने बराबर (न करोति) नहीं कर देता ! ॥१०॥ भातार्थ-- हे जगत् के भूषण ! हे प्राणिमात्र के नाथ ! अनेकानेक यथार्थ सद्गुणों के उल्लेख के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले सज्जन आपके समान ही उच्च पद पाकर विश्व-वन्ध हो जाते हैं, यह कोई महान् आश्चर्य की बात नहीं है। भला, संसार में जो स्वामी अपने आश्रित सेवक को अपने जैसा समृद्ध-सुखी नहीं बनाता, उस स्वामी की सेवा से क्या लाभ ? कुछ नहीं । योग्य स्वामी का सेवक आखिर स्वामी के समान महान् वन ही जाता है। टिप्पणी प्रस्तुत श्लोक में आचार्यश्री ने जैन-धर्म का मर्म भर दिया है । जैन-धर्म अन्य दर्शनों की तरह केवल प्रभु के दर्शन तक ही सीमित नहीं है, वह तो प्रभु के दर्शन के बाद प्रभु बनने की भूमिका तक पहुँचने का ऊँचा आदर्श रखता है। मनुष्य जैसी भावना रखता है, जैसे संकल्पों में बसता है, वैसा ही बन जाता है। शैतान का भक्त शैतान बनता है, तो भगवान् का भक्त भगवान् बनता है। अर्हन्त भगवान् की गुण-गाथा गाने से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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