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भत्तामर स्तोत्र
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ज्योति भरना, जिससे मुझे बाहर के चन्द्र और सूर्य के प्रकाश को कभी अपेक्षा ही न रहे। ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, ___ नैवं तथा हरि - हरादिषु नायकेषु । तेज स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं,
नैवं तु काच-शकले किरणाकुलेऽपि ॥२०॥ अन्वयार्थ-(त्वयि) आप में (कृतावकाशम्) अवकाश स्थान को प्राप्त ( ज्ञानम् ) ज्ञान ( यथा ) जिस प्रकार (विभाति) शोभायमान होता है, (एवं तथा) उस प्रकार (हरिहरादिषु) विष्णु - शंकर आदि ( नायकेषु ) देवों में (न विभाति ) सुशोभित नहीं होता (स्फुरन्मणिषु ) चमकती हुई मणियों में ( तेजः ) तेज ( यथा ) जैसा (महत्त्वं याति) महत्त्व पाता है, (तु एवं ) वैसा महत्व तो (किरणाकुले अपि) किरणों से व्याप्त (काचशकले) कांच के टुकड़े पर (न याति) नहीं पाता ॥२०॥
भावार्थ-हे भगवान् ! तीनों लोक को प्रकाशित करने वाला दिव्य-ज्ञान जैसा आप में पूर्ण रूप से उद्भासित है, वैसा हरि-हर आदि अन्य देवताओं में नहीं है।
यह ठीक भी है। क्योंकि जैसा प्रकाशमान तेज बहुमूल्य रत्नों में मिलता है, वैसा काच के टुकड़ों में कहाँ
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