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भक्तामर स्तोत्र
भाषा-भाषी देशों के रहन वाले मनुष्य अपनी- अपनी भाषा में सब अभिप्राय ग्रहण कर लेते हैं । और तो क्या, पशु-पक्षी भी अपनी-अपनी भाषा में भगवान् का उपदेश समझ लेते हैं । यह आठवाँ प्रतिहार्य है ।
उन्निद्र मनवपंकज पुञ्जकान्ती,
पर्युल्लसन् - नखमयूखशिखाभिरामौ । पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्तः,
पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥ ३६ ॥
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अन्वयार्थ - ( जिनेन्द्र ) हे जिनेन्द्र ! ( उन्निद्र हेमनबपंकजपुञ्जकान्ती) खिले हुए सोने के नवीन कमल समूह समान कान्तिवाले तथा (पर्युल्लसन्नख मयूख शिखाभिरामौ) चारों और से शोभायमान नखों की किरणों के अग्रभाग से सुन्दर ( तव ) आपके ( पादौ ) दोनों चरण ( यत्र ) जहाँ ( पदानि कदम ( धत्तः ) रखते हैं, (तत्र ) वहाँ ( विबुधाः ) देव (पद्मानि ) कमल (परिकल्पयन्ति) रच देते हैं ॥३६॥
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भावार्थ - हे जिनेन्द्र ! खिले हुए नवीन स्वर्ण कमलों के समान दिव्य कांति वाले, तथा सब ओर से उल्लसित विकीर्ण होने वाली नख - किरणों की प्रभा से अतीव मनोहर लगने वाले आपके पवित्र चरण, जहाँ-जहाँ
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