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भक्तामर - स्तोत्र
रक्तेक्षणं समदकोकिल-कण्ठनीलं,
क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम् । आकामति क्रमयुगेन निरस्तशंकस्
त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः ॥४१॥ अन्वयार्थ --(यस्य) जिस (पुसः) पुरुष के (हृदि) हृदय में (त्वन्नामनागदमनी) आपके नाम-रूपो नागदमनी औषधि मौजूद है, (सः) वह पुरुष (रक्तेक्षणम्) लाललाल आंखों वाले (समदकोकिल - कण्ठनीलम् ) मद - युक्त कोयल के कण्ठ की तरह काले ( क्रोधोद्धतम् ) क्रोध क्रोध से प्रचण्ड और ( उत्फणम ) ऊपर को फण उठाए हुए ( आपतन्तम् ) सामने आने वाले ( फणिनम् ) सांप को (निरस्तशंकः ) नि:शंक होकर ( क्रमयुगेन ) दोनों पैरों से ( आक्रामति ) अक्रान्त कर जाता है ।। ४१॥
भावार्थ-जिसकी आँखें लाल हों, जो मस्त कोयल के कण्ठ के समान काला हो, जो क्रोध से भड़क रहा हो, जो फण उठाकर काटने के लिए तैयार हो- ऐसे भयंकर जहरीले सांप को भी अपने पैरों के नीचे दवाकर खड़ा हो सकता है, जिसके हृदय में आपके नाम की नागदमनी जड़ी मौजूद है।
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