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भक्तामर स्तोत्र
दवानलाहि संग्राम वारिधि महोदर-बन्धनोत्थम ) मतवाले हाथी, सिंह, दावानल, सर्प, युद्ध, समुद्र, जलोदर और बन्धन आदि से उत्पन्न हुआ ( भयम् ) डर ( भियाइव ) मानो भय से डर कर ही (आशु ) शीघ्र (नाशम् - उपयाति) नष्ट हो जाता है, भाग जाता है ॥४७॥
भावार्थ -जो बुद्धिमान मनुष्य आपकी स्तुति करने वाले इस स्तोत्र का भक्तिपूर्वक पाठ करता है, उसका मदोन्मत्त हाथी, सिंह, दावानल, सर्प, युद्ध, समुद्र, जलोदर और कारागार-इन आठ कारणों से उत्पन्न होने वाला भय, स्वयं ही भयभीत होकर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है। स्तोत्र - स्रजं तव जिनेन्द्र ! गुणैर्निबद्धां,
भक्त्या मया रुचिरवर्णविचित्रपुष्पाम् । धत्ते जनो य इह कण्ठगतामजन,
तं मानतुगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥ अग्वयार्थ - (जिनेन्द्र ! ) हे जिनेन्द्र देव ! (इह) इस संसार में (यः जनः) जो मनुष्य (मया) मेरे द्वारा ( भक्त्या ) भक्ति पूर्वक ( गुणैः ) प्रसाद - माधुर्य - ओज आदि गुणों से-माला के पक्ष में डोरों से ( निबद्धाम् ) ग्रंथी
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