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भक्तामर स्तोत्र
कुन्ताग्रभिन्नगज - शोणितवारिवाहवेगावतार तरणातुरयोध भीमे । युद्ध े जयं विजितदुर्जयजेयपक्षांस्त्वत्पादपंकज-वनाश्रयिणो लभन्ते ॥४३॥
अन्वयार्थ - ( त्वत्पाद पंकज वनाश्रयिणः ) आपके चरण कमल रूपी वन का आश्रय लेने वाले पुरुष (कुन्ताग्रभिनगज - शोणितवारिवाह-वेगावतार-तरणातुर योध भी मे ) 'भालों की नोक से फाड़े हुए हाथियों के रक्त रूपी जल प्रवाह को बेग से उतरने और तैरने में व्यग्र योद्धाओं से भयंकर ( युद्ध ) युद्ध में ( विजितदुर्जयजेयपक्षाः ) दुर्जय शत्रुओं के पक्ष को जिन्होंने जीत लिया, ऐसे दुर्दान्त हो कर ( जयम् विजय ( लभन्ते) पाते हैं ॥४३॥
भावार्थ हे जिनेन्द्र ! उस भयंकर युद्ध में, जिसमें बड़े नामी-गिरामी वीर योद्धा भी भालों की नोक से आहत हाथियों के वेगवान रक्त प्रवाह को तैरने में व्याकुल हो रहे हों, आपके चरण कमल - रूपी वन का आश्रय लेने वाले भक्त बहुत शीघ्र ही दुर्जय शत्रुओं को जीतकर विजय प्राप्त करते हैं ।
अम्भोनिधौ
क्षुभितभीषणनक्रचक्र
पाठीन- पीठ-भयदोल्वणवाडवाग्नौ ।
५.७
Bab
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