Book Title: Bhaktamara stotra
Author(s): Mantungsuri, Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 67
________________ ५८ भक्तामर स्तोत्र रंगत्तरंग - शिखरस्थित - यानपात्रास्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ॥४४॥ अन्यथार्थ - (क्षुभितभीषणनऋचक्र - पाठीन - पीठभयदोल्वणवाडवाग्नी) जिसमें क्षुब्ध हुए भयंकर मगर - मच्छों के झुण्ड हैं, मछलियों के द्वारा भय - उत्पादक है तथा विकराल वडवानल है, ऐसे ( अम्भोनिधी) समुद्र में ( रंगत-तरंग-शिखरस्थितयानपात्राः) चंचल लहरों के अग्रभाग पर जिनके जलयान स्थित हैं, ऐसे लोग (भवतः) आपके (स्मरणात) स्मरण से (नासं ) डर (विहाय ) छोड़कर (ब्रजन्ति) चले जाते हैं - यात्रा करते हैं ॥४४, भावा - हे नाथ ! भीषण मगरमच्छों, पाठीन - पीठ नामक जलचर प्राणियों और भयंकर जलते हुए वड़वानल के कारण क्षुब्ध महासागर की उत्ताल तरल तरंगों की चोटियों पर जिनकी नैया डगमगा रही हो, इस प्रकार काल के गाल में पहुंचे हुए समुद्र - यात्री भी आपके नाम स्मरण से सकुशल समुद्र पार कर जाते हैं। उदभतभीषणजलोदर - भारभग्नाः शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशाः । त्वत्पाद - पंकजरजोऽमृतदिग्धदेहा, मां भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥४५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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