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भक्तामर - स्तोत्र
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प्रभा (दीप्त्या) अपनी दीप्ति से (प्रोद्यद् दिवाकरनिरंतरभरिसंख्या) उदय होते हुए अन्तर रहित अनेक सूर्यों जैसी कान्ति से उपलक्षित होकर (अपि) भी (सौम - सौम्याम्) चन्द्रमा की सौम्य--शीतल (निशाम् अपि) रात्रि को भी (जयति) जीत रही है ।।३४॥
भावार्थ-हे प्रभो ! आपके प्रकाशमान भामण्डल की ज्योतिर्मयी प्रभा तीन जगत् के द्युतिमान पदार्थों की युति को भी तिरस्कृत कर देने वाली है। आपके भामण्डल की प्रभा अपनी दीप्ति से अनेकानेक प्रकाशमान सूर्यों के समान प्रचण्ड होने पर भी अपनी शीतलता के द्वारा पूर्ण-चन्द्र मण्डल से शोभायमान पूर्णमासी की चन्द्रिका को भी पराजित कर देती है।
टिप्पणी प्रस्तुत श्लोक में भामण्डल नामक सातवें प्रातिहार्य का वर्णन है। भामण्डल वह है, जो भगवान् के मस्तक के पास प्रभा का एक गोल मण्डल-सा होता है। वह दिन-रात प्रकाश से जगमगाता रहता है, रात्रि के सघन अन्धकार में भी वह उज्ज्वल प्रकाश देता है । भामण्डल की कान्ति सैकड़ों सूर्यों के समान होने पर भी उष्णता करने वाली नहीं है, प्रत्युत चन्द्रमा को स्वच्छ चाँदनी के समान शीतल है।
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