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भक्तामर - स्तोत्र
निरन्तर भड़ते रहते हैं। पुष्प जब आकाश से वरसते हैं, तो ऐसा मालूम होता है, मानों आपके वचनों की दिव्य पंक्तियाँ ही बरस रही हैं।
टिप्पणी भगवान् के समवसरण में देवता अपनी दिव्य-शक्ति से विभिन्न रंगों के सुगन्धित फूलों की वर्षा करते हैं । वह पुष्पवर्षा ऐसी मालूम होती है, मानो भगवान् के मुख से वचनरूपी फूल झड़ रहे हैं । कितनी भव्य कल्पना की है आचार्यश्री ने ! यह छठे प्रातिहार्य का वर्णन है।
मन्दार, सुन्दर आदि कल्पवृक्षों की वे जातियाँ हैं, जिनका वर्णन पौराणिक ग्रन्थों में बड़े विस्तार के साथ पाया जाता है । ये देवी कल्पवृक्ष माने जाते हैं। शम्भत्प्रभावलय-भरिविभा विभोस्ते,
लोकत्रय - द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती। प्रोद्यदिवाकर - निरन्तरभरिसंख्या, दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम्॥३४॥
अन्वयार्थ -- (लोकत्रय-द्य तिमताम) तीनों लोकों के कान्तिमान पदार्थों की (द्य तिम्) कान्ति को भी (आक्षिपन्ती) तिरस्कृत करती हुई ( ते विभोः) आप-प्रभु की ( शुम्भत्प्रभावलयभूरिविभा ) शुभ्र भामण्डल की विशाल
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