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भक्तामर स्तोत्र
अन्वयार्थ- (गम्भीरताररवपूरित-दिग्विभागः) गम्भीर और उच्च शब्द से दिशाओं के विभाग को पूर्ण करने, वाली (त्रैलोक्यलोकशुभसंगम - भतिदक्षः) तीन लोक के जीवों को शुभ सम्पत्ति प्राप्त कराने में निपुण - समर्थ और (सद्धर्मराजजयघोषण-घोषक:) सद्धर्म के अधिपति की जय घोषणा करने वाली (दुन्दुभिः) दुन्दुभि (ते) आपके (यशसः) यश का (प्रवादी सन्) कथन करती हुई (खे) आकाश में (ध्वनति) शब्द कर रही है ॥३२॥
भावार्थ-गम्भीर और तार ध्वनि से दशों-दिशाओं को पूरित कर देने वाली, तीन लोक की जनता को शुभ समागम की विभूति प्रदान करने में कुशल देवदुन्दुभि, जहाँ आप विराजते हैं, वहाँ आकाश में निरन्तर बजा करती है। यह दुन्दुभि आप जैसे सर्वश्रेष्ठ धर्मराज की जय-घोषणा करती है और संसार में सब ओर आपका यशोनाद गुजाती है।
टिप्पणी पौराणिक लोग मृत्यु के अनन्तर दण्ड देने वाले यमराज को भी धर्मराज कहते हैं । परन्तु वह धर्मराज कैसा ? वह धर्म की क्या शिक्षा देता है ? सच्चे धर्मराज तो भगवान् हैं, जो जनता को धर्म का मार्ग बताते है। आचार्यश्री ने पाँचवें
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