Book Title: Bhaktamara stotra
Author(s): Mantungsuri, Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 50
________________ भक्तामर स्तोत्र ४१ भावार्थ-- हे भगवन् ! जिस प्रकार ऊँचे उदयाचल पर्वत के शिखर पर आकाश में लता के समान दूर तक फैलती प्रकाशमान किरणों से युक्त सूर्य का विम्ब सुशोभित होता है, उसी प्रकार बहुमूल्य मणियों की किरणप्रभा से विचित्र ऊँचे सिंहासन पर आपका सुवर्ण के समान देदीप्यमान शरीर सुशोभित होता है । टिम्पपी उदयाचल पर उदय होने वाले सूर्य के साथ भगवान के स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान दिव्य शरीर की उपमा बहुत सुन्दर बन पड़ी है । यह दूसरे प्रातिहार्य का वर्णन है। कुन्दावदातचलचामरचारुशोभ, विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् । उद्यच्छशांकशुचि-निर्झर-वारिधार मच्चस्तदं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥३०॥ अन्वयार्थ-(कुन्दावदातचलचामर चारुशोभम्) कुन्द के फूल के समान स्वच्छ श्वेत चंचल चामरों के द्वारा जिसकी शोभा सुन्दर है, ऐसा ( तव ) आपका (कलधौतकान्तम्) सोने के समान कममीय (वपुः) शरीर (उद्यच्छशांक शुचि-निर्भर-वारिधारम्) जिस पर चन्द्रमा के समान निर्मल झरने के जल को धारा उछल-बह रही है, उस ( सुरगिरेः शातकौम्भम् उच्चस्तटम् इव ) मेरुपर्वत के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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