Book Title: Bhaktamara stotra
Author(s): Mantungsuri, Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 35
________________ २६ भक्तामर स्तोत्र निष्पन्नशालिवनशालिनि जीव - लोके, कार्य कियज्जलधरैर्जलभार-नम्रः ॥१९॥ अन्वयार्थ- (नाथ ! ) हे स्वामिन् ! (युष्मन्मुखेन्दु दलितेषु तमस्सु) आपके मुखरूप चन्द्रमा के द्वारा अन्धकार के नष्ट हो जाने पर (शर्वरीषु) रात्रि में (शशिना) चन्द्रमा से (वा) अथवा (अह्नि) दिन में (विवस्वता) सूर्य से (किम्) क्या प्रयोजन है ? (निष्पन्नशालिवनशालि नि) पैदा हुए धान्य के वनों से शोभायमान (जीवलोके) संसार में (जलभारनम्र:) पानी के भार से झुके हुए (जलधरैः) बादलों से (कियत कार्यम्) कितना काम का रह जाता है ? कुछ भी नहीं ॥१६॥ . भावार्य-हे नाथ ! जब आपके मुखचन्द्र ने अन्धकार को नाश कर समूचे विश्व को प्रकाशित कर दिया है, तब फिर रात्रि में चन्द्रमा की और दिन में सूर्य की क्या आवश्यकता है ? दोनों अन्यथा सिद्ध हैं। जव पूर्ण परिपक्व धान के खेतों से भूमण्डल शोभित हो रहा हो, तो फिर जल के भार से झके हुए बरसने वाले वादलो से क्या लाभ है ? कुछ भी नहीं। टिप्पणी हे प्रकाश के देवता ! आप मेरे हृदय में प्रकाश की वह Com Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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