________________
भक्तामर-स्तोत्र
३५ बुद्धस्त्वमेव विबुधाचित - बुद्धि-बोधात्
___ त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रय - शंकरत्वात् । धाताऽसि धीर ! शिवमार्गविविधानात्, व्यक्तं त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५॥
अन्वयार्थ-(विबुधाचितबुद्धि-वोधात्) आपकी बुद्धि का बोध -ज्ञान, देवों अथवा विद्वानों द्वारा पूजित होने से (त्वमेव) आप ही (बुद्धः) बुद्ध हैं । (भुवनत्रय-शंकरत्वात्) तीनों लोकों में सुख-शान्ति करने के कारण (त्वम) आप ही ( शंकरः असि ) शंकर- महादेव हैं । ( शिवमार्गविधेः विधानात ) मोक्ष - मार्ग की विधि का विधान करने से (धीर !) हे धीर ! ( त्वमेव ) आप ही (धाता असि) विधाता--ब्रह्मा हैं और (भगवन्) हे भगवन् ! (व्यक्तम्) स्पष्टत: (त्वमेव) आप ही ( पुरुषोत्तमः असि ) पुरुषों में उत्तम-विष्णु हैं ॥२५॥
भावार्थ-हे देवताओं के द्वारा पूजित प्रभो ! आप में बुद्धि-ज्ञान का पूर्णरूप से विकास हुआ है, इसलिए आप बुद्ध हो । तीन लोक के प्राणियो को शङ+करसुख-शान्ति प्रदान करने वाले हैं, इसलिए आप शंकर हो। हे धीर ! आप रत्नत्रय-रूप मोक्ष-मार्ग-विधि के विधाता-उपदेष्टा हैं, इसलिए आप विधाता-ब्रह्मा हो।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org