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भक्तामर स्तोत्र
है ? भले ही वह धूप में पड़ा हुआ सूर्य किरणों से कितना ही क्यों न चमक रहा हो ? मन्ये वरं हरि - हरादय एव दृष्टा,
दृष्टषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । कि वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः, कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि ॥२॥
अन्वयार्थ-(नाथ !) हे स्वामिन् (मन्ये) मैं मानता हूं कि (दृष्टाः ) देखे गए ( हरि - हरादयः एव ) विष्णुमहादेव आदि देव ही (वरम्) अच्छे हैं। (येषु दृष्टेषु) जिनके देखे जाने पर (हृदयम्) मन (त्वयि) आपके विषय में (तोषम एति) सन्तुष्ट हो जाता है। (भवता) आपके ( वीक्षितेन ) दर्शन से ( कम् ) क्या लाभ है ? (येन) जिससे कि ( भुवि ) पृथ्वी पर ( अन्यः कश्चित् ) दूसरा कोई देव (भवान्तरेऽपि) दूसरे जन्म में भी (मनः) चित्त को (न हरति) हर नहीं पाता ॥२१॥
भावार्थ-हे नाथ ! मैं तो आपके दर्शन की अपेक्षा हरिहर आदि अन्य देवों के दर्शन को ही अच्छा समझता हूं, जिनके दर्शन करने के बाद हृदय आप में तो सन्तोष पा लेता है। परन्तु, आपके दर्शन से क्या लाभ ? क्योंकि आपके एक वार दर्शन कर लेने के बाद संसार में अन्य
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